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Monday, 12 November 2018

अलिफ लैला-शहरयार और शहरजाद की शादी -Story 2

22:14 0
एक बड़ा व्यापारी था जिसके गाँव में बहुत-से घर और कारखाने थे जिनमें तरह-तरह के पशु रहते थे। एक दिन वह अपने परिवार सहित कारखानों को देखने के लिए गाँव गया। उसने अपनी पशुशाला भी देखी जहाँ एक गधा और एक बैल बँधे हुए थे। उसने देखा कि वे दोनों आपस में वार्तालाप कर रहे हैं। वह व्यापारी पशु-पक्षियों की बोली समझता था। वह चुपचाप खड़ा होकर दोनों की बातें सुनने लगा।

बैल ने गधे से कहा, 'तू बड़ा ही भाग्यशाली है, सदैव सुखपूर्वक रहता है। मालिक हमेशा तेरा खयाल रखता है। तेरी रोज मलाई-दलाई होती है, खाने को दोनों समय जौ और पीने के लिए साफ पानी मिलता है। इतने आदर-सत्कार के बाद भी तुझसे केवल यह काम लिया जाता है कि कभी काम पड़ने पर मालिक तेरी पीठ पर बैठ कर कुछ दूर चला जाता है। तुझे दाने-घास की कभी कमी नहीं होती।

'और तू जितना भाग्यवान है मैं उतना ही अभागा हूँ। मैं सवेरा होते ही पीठ पर हल लादकर जाता हूँ। वहाँ दिन भर मुझे हल में जोतकर चलाते हैं। हलवाहा मुझ पर बराबर चाबुक चलाता रहता है। उसके चाबुकों की मार से पीठ और जुए से मेरे कंधे छिल गए हैं। सुबह से शाम तक ऐसा कठिन काम लेने के बाद भी ये लोग मेरे आगे सूखा और सड़ा भूसा डालते हैं जो मुझसे खाया नहीं जाता। रात भर मैं भूखा-प्यासा अपने गोबर और मूत्र में पड़ा रहता हूँ और तेरी सुख-सुविधा पर ईर्ष्या किया करता हूँ।'

गधे ने यह सुनकर कहा, 'ऐ भाई, जो कुछ तू कहता है सब सच है, सचमुच तुझे बड़ा कष्ट है। किंतु जान पड़ता है तू इसी में प्रसन्न है, तू स्वयं ही सुख से रहना नहीं चाहता। तू यदि मेहनत करते-करते मर जाए तो भी ये लोग तेरी दशा पर तरस नहीं खाएँगे। अतएव तू एक काम कर, फिर वे तुझ से इतनी मेहनत नहीं लिया करेंगे और तू सूख से रहेगा।'

बैल ने पूछा कि ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है। गधे ने कहा, 'तू अपने को रोगी दिखा। एक शाम का दाना-भूसा न खा और अपने स्थान पर चुपचाप लेट जा।' बैल को यह सुझाव बड़ा अच्छा लगा। उसने गधे की बात सुनकर कहा, 'मैं ऐसा ही करूँगा। तूने मुझे बड़ा अच्छा उपाय बताया है। भगवान तुझे प्रसन्न रखें।'

दूसरे दिन प्रातःकाल हलवाहा जब पशुशाला में यह सोचकर गया कि रोज की तरह बैल को खेत जोतने के लिए ले जाए तो उसने देखा कि रात की लगाई सानी ज्यों की त्यों रखी है और बैल धरती पर पड़ा हाँफ रहा है, उसकी आँखें बंद हैं और उसका पेट फूला हुआ है। हलवाहे ने समझा कि बैल बीमार हो गया है और यह सोचकर उसे हल में न जोता। उसने व्यापारी को बैल के बीमारी की सूचना दी।

व्यापारी यह सुनकर जान गया कि बैल ने गधे की शिक्षा पर कार्य कर के स्वयं को रोगी दिखाया है अतएव उसने हलवाहे से कहा कि आज गधे को हल में जोत दो। इसलिए हलवाहे ने गधे को हल में जोत कर उससे सारे दिन काम लिया। गधे को खेत जोतने का अभ्यास नहीं था। वह बहुत थक गया और उसके हाथ-पाँव ठंडे होने लगे। शारीरिक श्रम के अतिरिक्त सारे दिन उस पर इतनी मार पड़ी थी कि संध्या को घर लौटते समय उसके पाँव भी ठीक से नहीं पड़ रहे थे।

इधर बैल दिन भर बड़े आराम से रहा। वह नाँद की सारी सानी खा गया और गधे को दुआएँ देता रहा। जब गधा गिरता-पड़ता खेत से आया तो बैल ने कहा कि भाई, तुम्हारे उपदेश के कारण मुझे बड़ा सुख मिला। गधा थकान के कारण उत्तर न दे सका और आकर अपने स्थान पर गिर पड़ा। यह मन ही मन अपने को धिक्कारने लगा कि अभागे, तूने बैल को आराम पहुँचाने के लिए अपनी सुख-सुविधा का विनाश कर दिया।

मंत्री ने इतनी कथा कर कहा, 'बेटी, तू इस समय बड़ी सुख-सुविधा में रहती है। तू क्यों चाहती है कि गधे के समान स्वयं को कष्ट में डाले?' शहरजाद अपने पिता की बात सुनकर बोली, 'इस कहानी से मैं अपनी जिद नहीं छोड़ती। जब तक आप बादशाह से मेरा विवाह नहीं करेंगे मैं इसी तरह आपके पीछे पड़ी रहूँगी।' मंत्री बोला, 'अगर तू जिद पर अड़ी रही तो मैं तुझे वैसा ही दंड दूँगा जो व्यापारी ने अपनी स्त्री को दिया था।' शहरजाद ने पूछा, 'व्यापारी ने क्यों स्त्री को दंड दिया और गधे और बैल का क्या हुआ?'

मंत्री ने कहा, 'दूसरे दिन व्यापारी रात्रि भोजन के पश्चात अपनी पत्नी के साथ पशुशाला में जा बैठा और पशुओं की बातें सुनने लगा। गधे ने बैल से पूछा, 'सुबह हलवाहा तुम्हारे लिए दाना-घास लाएगा तो तुम क्या करोगे?' 'जैसा तुमने कहा है वैसा ही करूँगा,' बैल ने कहा। गधे ने कहा, 'नहीं, ऐसा न करना, वरना जान से जाओगे। शाम को लौटते समय मैंने सुना कि हमारा स्वामी अपने रसोइए से कह रहा था कि कल कसाई और चमार को बुला लाना और बैल, जो बीमार हो गया है, का मांस और खाल बेच डालना। मैंने जो सुना था वह मित्रता के नाते तुझे बता दिया। अब तेरी इसी में भलाई है कि सुबह जब तेरे आगे चारा डाला जाए तो तू उसे जल्दी से उठकर खा ले और स्वस्थ बन जा। फिर हमारा स्वामी तुझे स्वस्थ देखकर तुझे मारने का इरादा छोड़ देगा।' यह बात सुन कर बैल भयभीत होकर बोला, 'भाई, ईश्वर तुझे सदा सुखी रखे। तेरे कारण मेरे प्राण बच गए। अब मैं वही करूँगा जैसा तूने कहा है।

व्यापारी यह बात सुनकर ठहाका लगा कर हँस पड़ा। उसकी स्त्री को इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ। वह पूछने लगी, 'तुम अकारण ही क्यों हँस पड़े?' व्यापारी ने कहा कि यह बात बताने की नहीं है, मैं सिर्फ यह कह सकता हूँ कि मैं बैल और गधे की बातें सुन कर हँसा हूँ। स्त्री ने कहा, 'मुझे भी वह विद्या सिखाओ जिससे पशुओं की बोली समझ लेते हैं।' व्यापारी ने इससे इनकार कर दिया। स्त्री बोली, 'आखिर तुम मुझे यह क्यों नहीं सिखाते?' व्यापारी बोला, 'अगर मैंने तुझे यह विद्या सिखाई तो मैं जीवित नहीं रहूँगा।' स्त्री ने कहा, 'तुम मुझे धोखा दे रहे हो। क्या वह आदमी जिसने तुझे यह सिखाया था, सिखाने के बाद मर गया? तुम कैसे मर जाओगे? तुम झूठ बोलते हो। कुछ भी हो मैं तुम से यह विद्या सीख कर ही रहूँगी। अगर तुम मुझे नहीं सिखाओगे तो मैं प्राण तज दूँगी।'

यह कह कर वह स्त्री घर में आ गई और अपनी कोठरी का दरवाजा बंद कर के रात भर चिल्लाती और गाली-गलौज करती रही। व्यापारी रात को तो सो गया लेकिन दूसरे दिन भी वही हाल देखा तो स्त्री को समझाने लगा कि तू बेकार जिद करती है, यह विद्या तेरे सीखने योग्य नहीं है। स्त्री ने कहा कि जब तक तुम मुझे यह भेद नहीं बताओगे, मैं खाना-पीना छोड़े रहूँगी और इसी प्रकार चिल्लाती रहूँगी। व्यापारी ने कहा कि अगर मैं तेरी मूर्खता की बात मान लूँ तो मैं अपनी जान से हाथ धो बैठूँगा। स्त्री ने कहा, 'मेरी बला से तुम जियो या मरो, लेकिन मैं तुमसे यह सीख कर ही रहूँगी कि पशुओं की बोली कैसे समझी जाती है।'

व्यापारी ने जब देखा कि यह महामूर्ख अपना हठ छोड़ ही नहीं रही है तो उसने अपने और ससुराल के रिश्तेदारों को बुलाया कि वे उस स्त्री को अनुचित हठ छोड़ने के लिए समझाएँ। उन लोगों ने भी उस मूर्ख को हर प्रकार समझाया लेकिन वह अपनी जिद से न हटी। उसे इस बात की बिल्कुल चिंता न थी कि उसका पति मर जाएगा। छोटे बच्चे माँ की यह दशा देखकर हाहाकार करने लगे।

व्यापारी की समझ ही में नहीं आ रहा था कि वह स्त्री को कैसे समझाए कि इस विद्या को सीखने का हठ ठीक नहीं है। वह अजीब दुविधा में था - अगर मैं बताता हूँ तो मेरी जान जाती है और नहीं बताता तो स्त्री रो रो कर मर जाएगी। इसी उधेड़बुन में वह अपने घर के बाहर जा बैठा।

उसने देखा कि उसका कुत्ता उसके मुर्गे को मुर्गियों से भोग करते देख कर गुर्राने लगा। उसने मुर्गे से कहा, 'तुझे लज्जा नहीं आती कि आज के जैसे दुखदायी दिन भी तू यह काम कर रहा है?'

मुर्गे ने कहा, 'आज ऐसी क्या बात हो गई है कि मैं आनंद न करूँ?' कुत्ता बोला, 'आज हमारा स्वामी अति चिंताकुल है। उसकी स्त्री की मति मारी गई है और वह उससे ऐसे भेद को पूछ रही है जिसे बताने से वह तुरंत ही मर जाएगा। नहीं बताएगा तो स्त्री रो-रो कर मर जाएगी। इसी से सारे लोग दुखी हैं और तेरे अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं है जो स्त्री संभोग की भी बात भी सोचे।'

मुर्गा बोला, 'हमारा स्वामी मूर्ख है जो एक स्त्री का पति है और वह भी उसके अधीन नहीं है। मेरी तो पचास मुर्गियाँ हैं और सब मेरे अधीन हैं। अगर हमारा स्वामी एक काम करे तो उसका दुख अभी दूर हो जाएगा।'

कुत्ते ने पूछा कि स्वामी क्या करे कि उसकी मूर्ख स्त्री की समझ वापस आ जाए। मुर्गे ने कहा, 'हमारे स्वामी को चाहिए कि एक मजबूत डंडा लेकर उस कोठरी में जाए जहाँ उसकी स्त्री चीख-चिल्ला रही है। दरवाजा अंदर से बंद कर ले और स्त्री की जम कर पिटाई करे। कुछ देर में स्त्री अपना हठ छोड़ देगी।'

मुर्गे की बात सुनकर व्यापारी ने उठकर एक मोटा डंडा लिया और उस कोठरी में गया जहाँ उसकी पत्नी चीख-चिल्ला रही थी। दरवाजा अंदर से बंद कर के व्यापारी ने स्त्री पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए। कुछ देर चीख-पुकार बढ़ाने पर भी जब स्त्री ने देखा कि डंडे पड़ते ही जा रहे हैं तो वह घबरा उठी। वह पति के पैरों पर गिर कर कहने लगी कि अब हाथ रोक ले, अब मैं कभी ऐसी जिद नही करूँगी। इस पर व्यापारी ने हाथ रोक लिया।

यह कहानी सुनाकर मंत्री ने शहरजाद से कहा कि अगर तुमने अपना हठ न छोड़ा तो मैं तुम्हें ऐसा ही दंड दूँगा जैसा व्यापारी ने अपनी स्त्री को दिया था। शहरजाद ने कहा 'आप की बातें अपनी जगह ठीक हैं किंतु मैं किसी भी प्रकार अपना मंतव्य बदलना नहीं चाहती। अपनी इच्छा का औचित्य सिद्ध करने के लिए मुझे भी कई ऐतिहासिक घटनाएँ और कथाएँ मालूम हैं लेकिन उन्हें कहना बेकार है। यदि आप मेरी कामना पूरी न करेंगे तो मैं आप से पूछे बगैर स्वयं ही बादशाह की सेवा में पहुँच जाऊँगी।'

अब मंत्री विवश हो गया। उसे शहरजाद की बात माननी पड़ी। वह बादशाह के पास पहुँचा और अत्यंत शोक-संतप्त स्वर में निवेदन करने लगा, 'मेरी पुत्री आपके साथ विवाह सूत्र में बँधना चाहती है।' बादशाह को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, 'तुम सब कुछ जानते हो फिर भी तुमने अपनी पुत्री के लिए ऐसा भयानक निर्णय क्यों लिया?' मंत्री ने कहा, 'लड़की ने खुद ही मुझ पर इस बात के लिए जोर दिया है। उसकी खुशी इसी बात में हैं कि वह एक रात के लिए आप की दुल्हन बने और सुबह मृत्यु के मुख में चली जाए।' बादशाह का आश्चर्य इस बात से और बढ़ा। वह बोला, 'तुम इस धोखे में न रहना कि तुम्हारा खयाल कर के मैं अपनी प्रतिज्ञा छोड़ दूँगा। सवेरा होते ही मैं तुम्हारे ही हाथों तुम्हारी बेटी को सौंपूँगा कि उसका वध करवाओ। यह भी याद रखना कि यदि तुमने संतान प्रेम के कारण उसके वध में विलंब किया तो मैं उसके वध के साथ तेरे वध की भी आज्ञा दूँगा।'

मंत्री ने निवेदन किया, 'मैं आपका चरण सेवक हूँ। यह सही है कि वह मेरी बेटी है और उसकी मृत्यु से मुझे बहुत ही दुख होगा। लेकिन मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' बादशाह ने मंत्री की बात सुनकर कहा, 'यह बात है तो इस कार्य में विलंब क्यों किया जाए। तुम आज ही रात को अपनी बेटी को लाकर उसका विवाह मुझ से कर दो।'

मंत्री बादशाह से विदा लेकर अपने घर आया और शहरजाद को सारी बात बताई। शहरजाद यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और अपने शोकाकुल पिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर के कहने लगी, 'आप मेरा विवाह कर के कोई पश्चात्ताप न करें। भगवान चाहेगा तो इस मंगल कार्य से आप जीवन पर्यंत हर्षित रहेंगे।'

फिर शहरजाद ने अपनी छोटी बहन दुनियाजाद को एकांत में ले जाकर उससे कहा, 'मैं तुमसे एक बात में सहायता चाहती हूँ। आशा है तुम इससे इनकार न करोगी। मुझे बादशाह से ब्याहने के लिए ले जाएँगे। तुम इस बात से शोक-विह्वल न होना बल्कि मैं जैसा कहूँ वैसा करना। मैं तुम्हें विवाह की रात पास में सुलाऊँगी और बादशाह से कहूँगी कि तुम्हें मेरे पास आने दे ताकि मैं मरने के पहले तुम्हें धैर्य बँधा सकूँ। मैं कहानी कहने लगूँगी। मुझे विश्वास है कि इस उपाय से मेरी जान बच जाएगी।' दुनियाजाद ने कहा, 'तुम जैसा कहती हो वैसा ही करूँगी।'   

शाम को मंत्री शहरजाद को लेकर राजमहल में गया। उसने धर्मानुसार पुत्री का विवाह बादशाह के साथ करवाया और पुत्री को महल में छोड़कर घर आ गया। एकांत में बादशाह ने शहरजाद से कहा, 'अपने मुँह का नकाब हटाओ।' नकाब उठने पर उसके अप्रतिम सौंदर्य से बादशाह स्तंभित-सा रह गया। लेकिन उसकी आँखों मे आँसू देख कर पूछने लगा कि तू रो क्यों रही है। शहरजाद बोली, 'मेरी एक छोटी बहन है जो मुझे बहुत प्यार करती है और मैं भी उसे बहुत प्यार करती हूँ। मैं चाहती हूँ कि आज वह भी यहाँ रहे ताकि सूर्योदय होने पर हम दोनों बहनें अंतिम बार गले मिल लें। यदि आप अनुमति दें तो वह भी पास के कमरे में सो रहे।' बादशाह ने कहा, 'क्या हर्ज है, उसे बुलवा लो और पास के कमरे में क्यों, इसी कमरे में दूसरी तरफ सुला लो।'

चुनांचे दुनियाजाद को भी महल में बुला लिया गया। शहरयार शहरजाद के साथ ऊँचे शाही पलँग पर सोया और दुनियाजाद पास ही दूसरे छोटे पलँग पर लेट रही। जब एक घड़ी रात रह गई तो दुनियाजाद ने शहरजाद को जगाया और बोली, 'बहन, मैं तो तुम्हारे जीवन की चिंता से रात भर न सो सकी। मेरा चित्त बड़ा व्याकुल है। तुम्हें बहुत नींद न आ रही हो और कोई अच्छी-सी कहानी इस समय तुम्हें याद हो तो सुनाओ ताकि मेरा जी बहले।' शहरजाद ने बादशाह से कहा कि यदि आपकी अनुमति हो तो मैं जीवन के अंतिम क्षणों में अपनी प्रिय बहन की इच्छा पूरी कर लूँ। बादशाह ने अनुमति दे दी। आगे की कहानी पढ़ें नीचे दिए गए लिंक पर :

अलिफ़ लैला -शहरयार और शाहजमाँ की कहानी- Story 1

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फारस देश भी हिंदुस्तान और चीन के समान था और कई नरेश उसके अधीन थे। वहाँ का राजा महाप्रतापी और बड़ा तेजस्वी था और न्यायप्रिय होने के कारण प्रजा को प्रिय था। उस बादशाह के दो बेटे थे जिनमें बड़े लड़के का नाम शहरयार और छोटे लड़के का नाम शाहजमाँ था। दोनों राजकुमार गुणवान, वीर धीर और शीलवान थे। 

जब बादशाह का देहांत हुआ तो शहजादा शहरयार गद्दी पर बैठा और उसने अपने छोटे भाई को जो उसे बहुत मानता था तातार देश का राज्य, सेना और खजाना दिया। शाहजमाँ अपने बड़े भाई की आज्ञा में तत्पर हुआ और देश के प्रबंध के लिए समरकंद को जो संसार के सभी शहरों से उत्तम और बड़ा था अपनी राजधानी बनाकर आराम से रहने लगा। जब उन दोनों को अलग हुए दस वर्ष हो गए तो बड़े ने चाहा कि किसी को भेजकर उसे अपने पास बुलाए। उसने अपने मंत्री को उसे बुलाने की आज्ञा दी और मंत्री यह आज्ञा पाकर बड़ी धूमधाम से विदा हुआ। जब वह समरकंद शहर के समीप पहुँचा तो शाहजमाँ यह समाचार सुनकर उसकी अगवानी को सेना लेकर अपनी राजधानी से रवाना हुआ और शहर के बाहर पहुँचकर मंत्री से मिला। वह उसे देखकर प्रसन्न हुआ। शाहजमाँ अपने भाई शहरयार का कुशलक्षेम पूछने लगा। मंत्री ने शाहजमाँ को दंडवत कर उसके भाई का हाल कहा।  

वह मंत्री बादशाह शहरयार का परम आज्ञा पालक था और उससे प्रेम करता था। शाहजमाँ ने उससे कहा कि भाई! मेरे अग्रज ने तुम्हें मुझे लेने को भेजा इस बात से मुझको अत्यंत हर्ष हुआ। उनकी आज्ञा मेरे शिरोधार्य है। अगर भगवान ने चाहा तो दस दिन में यात्रा की तैयारी कर के और शासन में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर तुम्हारे साथ चलूँगा। तुम्हारे और तुम्हारी सेना के लिए खाने-पीने का प्रबंध सब यहीं हो जाएगा। अतएव तुम इसी स्थान पर ठहरो। अतएव उसी स्थान पर खाने-पीने आदि की व्यवस्था कर दी गई और वे वहाँ रहे।

इस अवसर पर बादशाह ने यात्रा की तैयारियाँ की और अपनी जगह अपने विश्वास पात्र मंत्री को नियुक्त किया। एक दिन सायं अपनी बेगम से जो उसे अति प्रिय थी विदा ली और अपने सेवकों और मुसाहिबों को लेकर समरकंद से चला और अपने खेमे में पहुँचकर मंत्री के साथ बातचीत करने लगा। आधी रात होने पर उसकी इच्छा हुई कि एक बार बेगम से फिर मिल आऊँ। वह सबसे छुपकर अकेला ही महल में पहुँचा। बेगम को उसके आने का संदेह तक न था; वह अपने एक तुच्छ और कुरूप सेवक के साथ सो रही थी।

शाहजमाँ सोचकर आया था कि बेगम उसे देखकर अति प्रसन्न होगी। उसे दूसरे मर्द के साथ सोते देखकर एक क्षण के लिए उसे काठ मार गया। कुछ सँभलने पर सोचने लगा कि कहीं मुझे दृष्टि-भ्रम तो नहीं हो गया। लेकिन भलीभाँति देखने पर भी जब वही बात पाई तो सोचने लगा यह कैसा अनर्थ है कि मैं अभी समरकंद नगर की रक्षा भित्ति से बाहर भी नहीं निकला और ऐसा कर्म होने लगा। वह क्रोधाग्नि में जलने लगा और उसने तलवार निकालकर ऐसे हाथ मारे कि दोनो के सिर कट कर पलँग के नीचे आ गए। इसके बाद दोनों शवों को पिछवाड़े की खिड़की से नीचे गड्ढे में फेंककर वह अपने खेमे में वापस आ गया। उसने किसी से रात की बात न बताई।

दूसरे दिन प्रातः ही सेना चल पड़ी। उसके साथ के और सब लोग तो हँसी-खुशी रास्ता काट रहे थे किंतु शाहजमाँ अपनी बेगम के पाप कर्म को याद कर के दुखी रहता था और दिनों दिन उसका मुँह पीला पड़ता जाता था। उसकी सारी यात्रा इसी कष्ट में बीती।

जब वह हिंदुस्तान की राजधानी के समीप पहुँचा और शहरयार ने यह सुना तो वह अपने सारे दरबारियों को लेकर शाहजमाँ की अभ्यर्थना के लिए आया। जब दोनों एक-दूसरे के पास पहुँचे तो अपने-अपने घोड़े से उतर कर गले मिले और कुछ देर तक एक-दूसरे की कुशलक्षेम पूछ कर बड़े समारोहपूर्वक रवाना हुए। शहरयार ने शाहजमाँ को उस महल में ठहराया जो उसके लिए पहले से सजाया गया था और जहाँ से उद्यान दिखाई देता था। वह महल बड़ा और राजाओं के स्वागतयोग्य था। फिर शहरयार ने अपने भाई से स्नान करने को कहा। शाहजमाँ ने स्नान कर के नए कपड़े पहने और दोनों भाई महल के मंच पर बैठकर देर तक वार्तालाप करते रहे। सारे दरबारी दोनों बादशाहों के सामने अपने-अपने उपयुक्त स्थान पर खड़े रहे। भोजनोपरांत भी दोनों बादशाह देर तक बातें करते रहे।

जब रात बहुत बीत गई तो शहरयार अपने भाई को आतिथ्य गृह में छोड़कर अपने महल को चला गया। शाहजमाँ फिर शोकाकुल होकर अपने पलँग पर आँसू बहाता हुआ लोटता रहा। भाई के सामने वह अपना दुख छुपाए रहा लेकिन अकेला होते ही उस पर वही दुख सवार हो गया और उसकी पीड़ा ऐसी बढ़ गई जैसे उसकी जान लेकर ही छोड़ेगी। वह एक क्षण के लिए भी अपनी बेगम का दुष्कर्म भुला नहीं पाता था। वह अक्सर हाय हाय कर उठता और हमेशा ठंडी साँसें भरा करता। उसे रातों को नींद नहीं आती थी। इसी दुख और चिंता में उसका शरीर धीरे-धीरे घुलने लगा।

शहरयार ने उसकी यह दशा देखी तो विचार किया कि मैं शाहजमाँ से इतना प्रेम करता हूँ और उसकी सुख-सुविधा का इतना खयाल रखता हूँ फिर भी सदैव ही इसे शोक सागर में निमग्न देखता हूँ। मालूम नहीं इसे अपने राज्य की चिंता खाए जाती है या अपनी बेगम का विछोह सताता है। मैंने इसे यहाँ बुलाकर बेकार ही इसे शोक संताप में डाल दिया। अब उचित होगा कि इसे समझा-बुझा कर और उत्तमोत्तम भेंट वस्तुएँ देकर समरकंद वापस भेज दूँ ताकि इसका दुख दूर हो सके। यह सोचकर उसने हिंदुस्तान देश की बहुमूल्य वस्तुएँ थालों में लगाकर शाहजमाँ के पास भेजीं और उसका जी बहलाने के लिए तरह-तरह के खेल-तमाशे करवाए लेकिन शाहजमाँ की उदासी कम नहीं हुई बल्कि बढ़ती ही गई। फिर शहरयार ने अपने दरबारियों से कहा कि सुना है यहाँ से दो दिनों की राह के बाद एक घना जंगल है और वहाँ अच्छा शिकार मिलता है इसलिए मैं वहाँ शिकार खेलने जाना चाहता हूँ; तुम लोग भी तैयार होकर मेरे साथ चलो और शाहजमाँ से भी चलने को कहो क्योंकि शिकार में उसका जी लगेगा और उसका चित्त प्रसन्न होगा। शाहजमाँ ने निवेदन किया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इस कारण मुझे शिकार पर जाने से माफ करें। शहरयार ने कहा - अच्छी बात है, अगर तुम्हारा यहीं रहने को जी चाहता है तो रहो लेकिन मैं तैयारी कर चुका हूँ, मेरे अपने भृत्यों के साथ शिकार के लिए जाता हूँ।

शहरयार के जाने के बाद शाहजमाँ ने अपने निवास स्थान के द्वार अंदर से बंद कर लिए और एक खिड़की पर जा बैठा। वहाँ से शाही महल का उद्यान दिखाई देता था। शाहजमाँ सुवासित पुष्पों और पक्षियों के कलरव से अपना जी बहलाने लगा। लेकिन मकान और बाग की शोभा से जी बहलाने पर भी उसे अपनी पत्नी के दुराचार की कचोट बनी रहती।

जब संध्या हुई तो शाहजमाँ ने देखा कि राजमहल का एक चोर दरवाजा खुला और उसमें से शहरयार की बेगम बीस अन्य स्त्रियों के साथ निकली। वे सब उत्तम वस्त्रों और अलंकारों से शोभित थीं और इस विश्वास के साथ कि सब लोग शिकार पर चले गए हैं, बाग में आ गईं। शाहजमाँ खिड़की में छुप कर बैठ गया और देखने लगा कि वे क्या करती हैं।
दासियों ने उन लबादों को उतार डाला जो पहन कर वे महल से निकली थीं। अब उनकी सूरत स्पष्ट दिखाई देने लगी। शाहजमाँ को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिन बीसों को उसने स्त्री समझा था उनमें से दस हब्शी मर्द थे। उन दसों ने अपनी-अपनी पसंद की दासी का हाथ पकड़ लिया। सिर्फ बेगम बगैर मर्द की रह गई। फिर बेगम ने आवाज दी, 'मसऊद, मसऊद'। इस पर एक हृष्ट-पुष्ट हब्शी युवक जो उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा में था एक वृक्ष से उतर कर बेगम की ओर दौड़ा और उसका हाथ पकड़ लिया। उन ग्यारह हब्शियों ने दस दासियों और बेगम के साथ क्या किया उसका वर्णन मैं लज्जावश नहीं कर सकूँगा। इसी भाँति वे आधी रात तक बाग में विहार करते रहे। फिर बाग के हौज में नहा कर बेगम और उसके साथ आए बीस मर्द औरतों ने अपने कपड़े पहने और जिस चोर दरवाजे से आए थे उसी से महल में चले गए और मसऊद भी बाग की दीवार फाँद कर बाहर चला गया।

यह कांड देखकर शाहजमाँ को घोर आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि मैं तो दुखी हूँ ही, मेरा बड़ा भाई मुझ से भी अधिक दुखी है। यद्यपि वह अत्यंत शक्तिशाली और वैभवशाली है तथापि इस दुष्कर्म को रोकने में असमर्थ है, फिर मैं इतना शोक क्यों करूँ। जब मुझे मालूम हो गया कि यह नीच कर्म संसार में अक्सर ही होता है तो मैं बेकार ही स्वयं को शोक सागर में डुबोए दे रहा हूँ। यह सोचकर उसने सारी चिंता छोड़ दी और साधारण रूप से रहने लगा। पहले उसकी भूख मिट गई थी, अब वह जाग गई और वह नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन मँगाकर खाने लगा और संगीत-नृत्य आदि का आनंद लेने लगा।

जब शहरयार शिकार से लौटा तो शाहजमाँ ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उसका स्वागत किया। शहरयार ने उसे शिकार किए हुए बहुत से जानवर दिखाए और कहा कि बड़े खेद की बात है कि तुम शिकार पर नहीं गए, वहाँ बड़े आनंद की जगह है। शाहजमाँ बादशाह की हर बात का हँसी-खुशी उत्तर देता था। शहरयार ने सोचा था कि वापसी पर भी शाहजमाँ को दुख और शोक में डूबा पाएगा लेकिन इसके विपरीत उसे प्रसन्न और संतुष्ट देखकर बोला 'ऐ भाई, भगवान को बड़ा धन्यवाद है कि मैंने थोड़ी ही अवधि में तुम्हें प्रसन्न और व्याधिमुक्त देखा। अब मैं तुम्हें सौगंध देकर एक बात पूछता हूँ, तुम वह बात जरूर बताना। शाहजमाँ ने कहा, 'जो बात भी आप पूछेंगे मैं अवश्य बताऊँगा।'

शहरयार ने कहा, 'जब तुम अपनी राजधानी से यहाँ आए थे तो मैंने तुम्हें शोक सागर में डूबा देखा था। मैंने तुम्हारा चित्त प्रसन्न करने के लिए अनेक उपाय किए, भाँति-भाँति के खेल-तमाशे करवाए किंतु तुम्हारी दशा जैसी की तैसी रही। मैंने बहुत सोचा कि इस दुख का कारण क्या हो सकता है किंतु इसके सिवा कोई कारण समझ में नहीं आया कि तुम्हें अपनी बेगम के विछोह का दुख है और राज्य प्रबंध की चिंता है। किंतु अब क्या बात हुई जिससे तुम्हारा दुख और चिंता दूर हो गई?

शाहजमाँ यह सुनकर मौन रहा किंतु जब शहरयार ने बार-बार यही प्रश्न पूछा तो वह बोला, 'आप मेरे मालिक हैं मुझ से बड़े हैं; मैं इस प्रश्न का उत्तर न दूँगा क्योंकि इसमें बड़ी निर्लज्जता की बात है।' शहरयार ने कहा कि जब तक तुम मुझे यह न बताओगे तब तक मुझे चैन न आएगा। शाहजमाँ ने विवश होकर अपनी बेगम के कुकर्म का सविस्तार वर्णन किया और कहा कि मैं इसी कारण दुखी रहता था।

शहरयार ने कहा, 'भैय्या, यह तो तुमने बड़े आश्चर्य की, असंभव-सी बात बताई। यह तो तुमने बड़ा अच्छा किया कि ऐसी व्यभिचारिणी को उसके प्रेमी सहित मार डाला। इस मामले में कोई तुम्हें अन्यायी नहीं कह सकता। मैं तुम्हारी जगह होता तो मुझे एक स्त्री को मारने से संतोष न होता, हजार स्त्रियों को मार डालता। बताओ कि मेरे बाहर जाने पर यह शोक किस प्रकार दूर हुआ?'

शाहजमाँ ने कहा, 'मुझे यह बात कहते डर लगता है कि ऐसा न हो कि यह सुनकर आपको मुझसे भी अधिक दुख हो।' शहरयार ने कहा कि भाई, तुमने यह कह कर मेरी उत्कंठा और बढ़ा दी है; मुझे अब इसे सुने बगैर चैन न आएगा इसलिए यह बात जरूर बताओ। विवश होकर शाहजमाँ ने मसऊद, दसों दासियों और बेगम का सारा हाल बताया और बोला, यह घटना मैंने अपनी आँखों से देखी है और समझ लिया है कि सारी स्त्रियों के स्वभाव में दुष्टता और पाप होता है। और आदमी को चाहिए कि उनका भरोसा न करे। मुझे यह सारा कांड देखकर अपना दुख भूल गया है और इसीलिए मैं नीरोग और प्रसन्नचित्त दिखाई देता हूँ।'

यह हाल सुनकर भी शहरयार को अपने भाई के कथन पर विश्वास न हुआ। वह क्रुद्ध स्वर में बोला, 'क्या हमारे देश की सारी बेगमें व्यभिचारिणी हैं? मुझे तुम्हारे कहने का विश्वास नहीं होगा जब तक मैं खुद अपनी आँखों से यह न देख लूँ। संभव है तुम्हें भ्रम हुआ हो।' शाहजमाँ ने कहा, 'भाई साहब, आप खुद देखना चाहते हैं तो ऐसा कीजिए कि दुबारा शिकार के लिए आज्ञा दीजिए। हम आप दोनों फौज के साथ शहर से कूच कर के बाहर चलें। दिन भर अपने खेमों में रहें और रात को चुपचाप इसी मकान में आ बैठें। फिर निश्चय ही आप वह सारा व्यापार अपनी आँखों देख लेंगे जो मैंने आपको बताया है।'

शहरयार ने यह बात स्वीकार कर के दरबारियों को आज्ञा दी कि कल मैं फिर शिकार को जाऊँगा। अतः दूसरे दिन प्रातःकाल ही दोनों भाई शिकार को चले और शहर के बाहर जाकर अपने खेमों में ठहरे। जब रात हुई तो शहरयार ने मंत्री को बुलाकर आज्ञा दी कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूँ, तुम फौज के किसी आदमी को यहाँ से जाने न देना। तत्पश्चात दोनों भाई घोड़ों पर सवार होकर गुप्त रूप से शहर में आए और सवेरा होने के पहले ही शाहजमाँ के महल की उसी खिड़की में आ बैठे जिससे शाहजमाँ ने सारा कांड देखा था। सूर्योदय के पूर्व ही महल का चोर दरवाजा खुला और कुछ देर में बेगम अपने उन्हीं स्त्री वेशधारी हब्शियों के साथ वहाँ से निकल कर बाग में आई और मसऊद को पुकारा।

यह सारा हाल - जो न कहने के योग्य है न सुनने के - देखकर शहरयार अपने मन में कहने लगा कि हे! भगवान, यह कैसा अनर्थ है कि मुझ जैसे महान नृपति की पत्नी ऐसी व्यभिचारणी हो। फिर वह शाहजमाँ से बोला कि यह अच्छा रहेगा कि हम इस क्षणभंगुर संसार को जिसमें एक क्षण आनंद का होता है दूसरा दुख का, छोड़ दें और अपने देशों और सेनाओं का परित्याग कर के अन्य देशों में शेष जीवन काटें और इस घृणित व्यापार के बारे में किसी से कुछ न कहें।

शाहजमाँ को यह बात पसंद नहीं आई किंतु अपने भाई की अत्यंत दुखी दशा देखकर उसने इनकार करना ठीक न समझा और बोला, 'भाई साहब, मैं आपका अनुचर हूँ और आपकी आज्ञा को पूर्ण रूप से मानूँगा। लेकिन मेरी एक शर्त है। जब आप किसी व्यक्ति को अपने से अधिक इस दुर्भाग्य से पीड़ित देखें तो अपने देश को लौट आएँ।'

शहरयार ने कहा, 'मुझे तुम्हारी यह शर्त स्वीकार है लेकिन मेरा विचार है कि संसार में किसी मनुष्य को हमारे जैसा दुख नहीं होगा।' शाहजमाँ ने कहा, 'थोड़ी-सी ही यात्रा करने पर आपको इस बात का पता अच्छी तरह से चल जाएगा।'

अतएव वे दोनों छुप कर एक सुनसान रास्ते से नगर के बाहर एक ओर को चले। दिन भर चलने के बाद रात को एक पेड़ के नीचे लेट कर सो रहे। दूसरे दिन प्रातःकाल वे वहाँ से भी आगे चले और चलते-चलते एक मनोरम वाटिका में पहुँचे जो एक नदी के तट पर बनी हुई थी। इस वाटिका में दूर-दूर तक घने और बड़े-बड़े वृक्ष लगे थे। वहाँ एक वृक्ष के नीचे बैठकर वे सुस्ताने लगे और बातचीत करने लगे।

थोड़ी ही देर हुई थी कि एक भयानक शब्द सुनकर दोनों अत्यंत भयभीत हुए और काँपने लगे। कुछ देर में देखा कि नदी के जल में दरार हुई और उसमें से एक काला खंभा निकलने लगा। वह इतना ऊँचा हो गया कि उसका ऊपरी भाग आकाश के बादलों में लुप्त हो गया। यह कांड देखकर दोनों भाई और भी भयभीत हुए और एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ कर उसकी डालियों और पत्तों में छुपकर बैठ गए। उन्होंने देखा कि काला खंभा नदी के तट की ओर बढ़ने लगा और तट पर आकर एक महा भयानक दैत्य के रूप में परिवर्तित हो गया। अब वे दोनों और भी घबराए और एक और ऊँची डाल पर जा बैठे। दैत्य नदी तट पर आया तो उन्होंने देखा कि उसके सिर पर एक सीसे का बड़ा और मजबूत संदूक है जिसमें पीतल के चार ताले लगे हैं।

दैत्य ने नदी तट पर आकर सिर से संदूक उतारा और उसी वृक्ष के नीचे रख दिया जहाँ दोनों भाई छुपे थे। फिर उसने कमर से लटकती हुई चार चाभियों से संदूक के चारों ताले एक-एक कर के खोले। संदूक खोला तो उसमें से एक अति सुंदर स्त्री निकली जो उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत थी। दैत्य ने स्त्री को प्रेम दृष्टि से देखा और कहा, 'प्रिये, तू सुंदरता में अनुपम है। बहुत दिन हो गए जब मैं तुझे तेरे विवाह की रात को उड़ा लाया था। इस सारे काल में तू बड़ी निष्कलंक और मेरे प्रति वफादार रही है। मुझे इस समय बड़ी नींद आ रही है इसलिए तेरे निकट सोना चाहता हूँ।' यह कहकर वह महा भयानक आकृति वाला दैत्य उस स्त्री की जंघा पर सिर रख कर सो रहा। उसका शरीर इतना विशाल था कि उसके पाँव नदी के जल को छू रहे थे। सोते समय उसकी साँस का स्वर ऐसा हो रहा था जैसे बादल गरज रहे हों। सारा वातावरण उस ध्वनि से कंपायमान हो रहा था।

एक बार संयोग से जब स्त्री ने ऊपर की ओर देखा तो उसे पत्तियों में छुपे हुए दोनों भाई दिखाई दिए। उसने दोनों को नीचे उतरने का संकेत किया। उसके उद्देश्य को समझकर दोनों का भय और बढ़ा। दोनों ने इशारे ही से उससे विनती की कि हमें पेड़ ही पर छुपा रहने दो। स्त्री ने धीरे से दैत्य का सिर अपनी गोद से उतारकर पृथ्वी पर रख दिया और उठकर उनको धैर्य देते हुए बोली कि कोई भय की बात नहीं है, तुम नीचे उतर आओ और मेरे समीप बैठो। उसने यह भी धमकी दी कि अगर न आओगे तो मैं दैत्य को जगा दूँगी और वह तुम दोनों को समाप्त कर देगा। यह सुनकर वे बहुत डरे और चुपचाप नीचे उतर आए। वह स्त्री मुस्कारती हुई दोनों का हाथ पकड़ कर एक वृक्ष के नीचे ले गई और उनसे अपने साथ संभोग करने को कहा। पहले तो उन दोनों ने इनकार किया किंतु फिर उसकी धमकी से डर कर वह जैसा चाहती थी उसके साथ कर दिया। इसके बाद स्त्री ने उनसे उनकी एक-एक अँगूठी माँग ली। फिर उसने एक छोटी-सी संदूकची निकाली और उनसे पूछा कि जानते हो इसमें क्या है और किसलिए है? उन्होंने कहा, हमें नहीं मालूम, तुम बताओ इसमें क्या है। उस सुंदरी ने कहा, इसमें उन लोगों की निशानियाँ हैं जो तुम्हारी तरह मुझसे संबंध कर चुके हैं। ये अट्ठानबे अँगूठियाँ थीं और तुम्हारी दो मिलने से सौ हो गईं। इस दैत्य की इतनी कड़ी निगरानी के बाद भी मैंने सौ बार ऐसी मनमानी की है। यह दुराचारी दैत्य मुझ पर इतना आसक्त है कि क्षण भर के लिए भी मुझे अपने से अलग नही करता और बड़ी देखभाल के साथ मुझे इस सीसे के संदूक में छुपाकर समुद्र की तलहटी में रखता है। लेकिन उसकी सारी चालाकी और रक्षा प्रबंध पर भी मैं जो चाहती हूँ वह करती हूँ और इस बेचारे का सारा प्रबंध बेकार हो जाता है। अब मेरे हाल से तुम समझ लो कि स्त्री जब कामासक्त होती है तो कोई भी उसे दुष्कर्म से रोक नहीं सकता।

इसके पश्चात वह उनकी अँगूठियाँ लेकर अपनी जगह आई। उसने दैत्य का सिर फिर अपनी गोद में रख लिया और इन दोनों को संकेत किया कि चले जाओ। दोनों वहाँ से चल दिए और जब बहुत दूर निकल गए तो शाहजमाँ ने अपने बड़े भाई शहरयार से कहा, 'देखिए, इतनी सुरक्षा और कड़े प्रबंध पर भी यह स्त्री अपने मन की अभिलाषा पूरी कर रही है। यह भी देखिए कि दैत्य को उस पर कितना विश्वास है और वह उसकी निष्कलंकता की कैसी प्रशंसा कर रहा था। अब आप ही न्यायपूर्वक बताएँ कि इस बेचारे पर हम लोगों से अधिक दुर्भाग्य है या नहीं। हम जो बात ढूँढ़ने निकले थे वह हमें मिल गई। अब हमें चाहिए कि अपने-अपने देशों को चलें और किसी स्त्री से विवाह न करें क्योंकि शायद ही कोई स्त्री निष्पाप हो।

चुनांचे शहरयार ने अपने छोटे भाई के कहने के अनुसार ही काम किया और वहाँ से दोनों शहरयार की राजधानी को चले। तीन रातों बाद वे अपनी सेनाओं में पहुँचे। शहरयार ने आगे शिकार पर न जाना चाहा और राजधानी को वापस आ गया। महल में जाकर उसने मंत्री को आज्ञा दी कि वह बेगम को ले जाकर मृत्युदंड दे। मंत्री ने बादशाह की आज्ञानुसार ऐसा ही किया। फिर शहरयार ने दसों व्याभिचारिणी दासियों को अपने हाथ से मार डाला। इसके बाद शहरयार ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय करूँ कि विवाह के बाद मेरी बेगम कुकर्म का अवसर ही ना पा सके। अतएव उसने निश्चय किया कि रात को विवाह करूँ और सबेरे ही बेगम को मरवा दूँ। तत्पश्चात उसने अपने भाई शाहजमाँ को विदा किया। वह शहरयार की दी हुई अमूल्य भेंटों को लेकर अपनी सेना के साथ समरकंद चला गया। शाहजमाँ के जाने के बाद अपने प्रधान मंत्री को आज्ञा दी कि वह विवाह हेतु किसी सामंत की बेटी को लाए। प्रधान मंत्री ने एक अमीर की बेटी ला खड़ी की। शहरयार ने उससे विवाह किया और रात भर उसके साथ बिता कर सुबह मंत्री को आज्ञा दी कि इसे ले जाकर मार डालो और रात के लिए फिर किसी सरदार की सुंदरी बेटी मेरे विवाहार्थ ले आना। मंत्री ने उस बेगम को मार डाला और शाम को एक और अमीर की बेटी ले आया और दूसरे दिन उसे भी ले जाकर मार डाला। इसी प्रकार शहरयार ने सैकड़ों अमीरों सरदारों की बेटियों से विवाह किया और दूसरी सुबह उन्हें मरवा डाला। अब सामान्य नागरिकों की बारी आई। साथ ही इस जघन्य अन्याय की बात सब जगह फैल गई। सारे नगर में शोक, संताप और रोदन की आवाजें उठने लगीं। कहीं पिता अपनी पुत्री को मृत्यु पर आठ-आठ आँसू रोता था, कहीं लड़की की माता पछाड़ें खाती थी। जो कन्याएँ अभी तक बच रही थीं उनके माता-पिता और सगे-संबंधी अत्यंत दुखी रहते थे। कई लोग अपनी बेटियों को लेकर देश छोड़ गए और अन्य देशों में जा बसे।

वहाँ के मंत्री की दो कुँआरी बेटियाँ थीं। बड़ी का नाम शहरजाद और छोटी का नाम दुनियाजाद था। शहरजाद अपनी बहन और सहेलियों से अधिक तीक्ष्ण बुद्धि थी। वह जो बात भी सुनती या किसी पुस्तक में देखती उसे कभी नहीं भूलती थी। वार्तालाप के गुण में भी प्रवीण थी। उसे बहुत प्राचीन मनीषियों की आख्यायिकाएँ और कविताएँ जुबानी याद थीं और स्वयं गद्य-पद्य रचना में निपुण थी। इन सारे गुणों के अतिरिक्त उसमें अद्वितीय सौंदर्य भी था। एक दिन उसने पिता से कहा कि मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ लेकिन आप को मेरी बात माननी होगी। मंत्री ने कहा, यदि तेरी बात मानने योग्य होगी तो मैं अवश्य मानूँगा। शहरजाद ने कहा कि मेरा निश्चय है कि मैं बादशाह को इस अन्याय से रोकूँ जो वह कर रहा है और जो कन्याएँ अभी बची हैं उनके माता-पिता को चिंतामुक्त कर दूँ।

मंत्री ने कहा, 'बेटी, तुम यह हत्याकांड किस प्रकार रोक सकती हो। तुम्हारे पास कौन-सा उपाय ऐसा हो सकता है जिससे यह अन्याय बंद हो?' शहरजाद बोली, 'यह आपके हाथ में है। मैं आप को अपनी सौगंध देकर कहती हूँ कि मेरा विवाह बादशाह के साथ कर दीजिए।' मंत्री यह सुनकर काँपने लगा और बोला, 'बेटी, तू पागल हो गई है क्या जो ऐसी वाहियात बातें कर रही है। क्या तुझे बादशाह के प्रण का पता नहीं है? तू सोच- समझ कर बात किया कर। तू किस तरह बादशाह को इस अन्याय से रोक सकेगी? बेकार ही अपनी जान गँवाएगी।

शहरजाद ने कहा, 'मैं बादशाह के प्रण को भली भाँति जानती हूँ, परंतु अपने इस विचार को किसी प्रकार न छोड़ूँगी। यदि मैं अन्य कन्याओं की भाँति मारी गई तो इस असार संसार से मुक्ति पा जाऊँगी और अगर मैंने बादशाह को इस अत्याचार से विमुख कर दिया तो अपने नगर निवासियों का बड़ा हित कर सकूँगी।'

मंत्री ने कहा, 'मैं किसी प्रकार तेरी यह इच्छा स्वीकार नहीं कर सकता। मैं तुझे जानते-बूझते ऐसी विकट परिस्थिति में कैसे डाल सकता हूँ? अजीब-सी बात है कि तू मुझ से कहती है कि मेरी मौत का सामान कर दो। कौन-सा पिता ऐसा होगा जो अपनी प्यारी संतान के लिए ऐसा करने का सोच भी सकेगा। तुझे चाहे अपने प्राण प्यारे न हों लेकिन मुझ से यह नहीं हो सकता कि तेरे खून से हाथ रँगूँ।' शहरजाद फिर भी अपनी जिद पर अड़ी रही और विवाह की प्रार्थी रही।

मंत्री ने कहा, तू बेकार ही मुझे गुस्सा दिला रही है। आखिर क्यों तू मरना चाहती है? क्यों अपने प्राणों से इतनी रुष्ट है? सुन ले, जो भी व्यक्ति किसी काम को बगैर सोच-विचार के करता है उसे बाद में पछताना पड़ता है। मुझे भय है कि तेरी दशा उस गधे की तरह न हो जाए जो सुख से रहता था किंतु मूर्खता के कारण दुख में पड़ा। शहरजाद ने कहा, यह कहानी मुझे बताइए। मंत्री ने कहानी सुनाई।  दूसरी कहानी पढ़ें

अलिफ लैला -यंत्र के घोड़े की कहानी

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बादशाह सलामत, आपको यह मालूम ही है कि हजारों वर्ष से फारस में नौरोज यानी वर्ष का प्रथम दिवस बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। उसमें सभी लोग विशेषतः अग्निपूजक, भाँति-भाँति के नृत्यों और खेल-तमाशों का आयोजन करते हैं। बादशाहों और सामंतों को उनके प्रशंसक और सहायक अच्छी-अच्छी भेंटें देते हैं, देश-विदेश की सुंदर और दुर्लभ वस्तुएँ उन्हें भेंट में दी जाती हैं और बादशाह और अमीर लोग भी अपने वफादार साथियों और सेवकों को हजारों रुपए इनाम में देते हैं। पुराने जमाने में फारस का एक बादशाह नगर के बाहर मैदान में हो रहे नौरोज के उत्सव में भाग लेने के लिए गया। उसके सारे दरबारियों, सामंतों और प्रमुख राजकर्मचारियों ने आ कर उसकी सेवा में बहुमूल्य भेंटें दीं। प्रख्यात कलाकारों और कारीगरों ने अपनी बनाई सुंदर वस्तुएँ भेंट में दीं।

इन में हिंदुस्तान से आया हुआ एक बहुत होशियार हिंदू कारीगर भी शामिल था। उसने बादशाह को जमीन तक झुक कर सलाम किया और यंत्र रूप में बना हुआ एक घोड़ा भेंट किया। उसने कहा, पृथ्वीपाल, इस तुच्छ सेवक ने कई वर्षों तक अथक परिश्रम करके आप की सेवा में देने के लिए यह अद्भुत वस्तु बनाई है। आपको समस्त संसार में ऐसी वस्तु न मिलेगी। देखने की तो बात ही क्या है। किसी ने ऐसी चीज के बारे में सुना भी नहीं होगा। बादशाह ने त्योरी पर बल डाल कर कहा, तुम इसे अद्भुत वस्तु क्यों कहते हो? यह तो केवल लकड़ी का बना घोड़ा है जिस पर तुमने सुनहरा रुपहला साज लगाया है। हमारे यहाँ के कारीगर इससे सुंदर लकड़ी का घोड़ा बना सकते हैं। मैं तो कोई खास बात इस घोड़े से नहीं देखता।

कारीगर बोला, सरकार, मैं अपने घोड़े की गढ़न और सजावट की बात नहीं कर रहा। निश्चय ही रूप-रंग में इससे अच्छे घोड़े बन सकते हैं। किंतु इस घोड़े में एक ऐसी अद्भुत कारीगरी का काम है जो कहीं देखने को नहीं मिल सकता। ऐसा घोड़ा, मैं फिर निवेदन करता हूँ, बनाने की कोई सोच भी नहीं सकता। इसमें ऐसे पेंच लगे हैं जिन्हें घुमाने पर मैं, या कोई अन्य व्यक्ति जिसे मैं इसके यंत्रों के बारे में समझा दूँ, इस घोड़े पर आकाश की सैर कर सकता है, यह घोड़ा चिड़ियों की तरह उड़ता है। यह इतना शीघ्रगामी है कि देखते-देखते कोसों की यात्रा कर के वापस आ सकता है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं इस पर बैठ कर इसके करतब आपको दिखाऊँ।

बादशाह यह सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने ऐसी किसी चीज के बारे में सोचा तक नहीं था। उसने हिंदोस्तानी से कहा, दिखाओ इस घोड़े का कमाल। हिंदोस्तानी कारीगर बाईं रिकाब में पाँव डाल कर उचका और घोड़े की पीठ पर बैठ गया। उसने दोनों रिकाबों में पाँच जमा लिए और लगाम पकड़ कर बादशाह से बोला, मुझे किधर जाने का हुक्म होता है? फारस की राजधानी शीराज से, जहाँ यह उत्सव हो रहा था, लगभग तीन मील दूर एक ऊँचा पहाड़ था जो राजधानी से दिखाई देता था। बादशाह ने कहा, वह पहाड़ देख रहे हो? हालाँकि वह यहाँ से बहुत दूर नहीं है किंतु तुम्हारे घोड़े की परीक्षा के लिए इतनी दूरी ही काफी है। उस पहाड़ की तलहटी में एक खजूर का पेड़ लगा है। तुम उसकी एक पत्ती ले आओ।

अभी बादशाह के मुँह से पूरी बात भी नहीं निकली थी कि हिंदुस्तानी कारीगर ने घोड़े की गर्दन में लगा हुआ एक पेंच मरोड़ा। घोड़ा एकदम धरती से आकाश की ओर तेजी से उठा और वायु वेग से पहाड़ की ओर उड़ने लगा और शीघ्र ही आँखों से ओझल हो गया। सारे दरबारी और सामंत तथा अन्य लोग इस बात को देख कर बड़े आश्चर्य में पड़े और सभी के मुख से घोड़े की प्रशंसा के शब्द निकलने लगे। पाँच सात मिनट बाद वह घोड़ा अपने कारीगर सवार को लिए हुए वापस आ गया। कारीगर के हाथ में खजूर के पेड़ की एक टहनी थी। उसने घोड़े से उतर कर बादशाह को वह टहनी भेंट की।

बादशाह यह देख कर बहुत खुश हुआ। उसने हिंदोस्तानी कारीगर से उस घोड़े का दाम पूछा। कारीगर बोला, जगाधिपति, मैं इस घोड़े को बेचने के लिए नहीं लाया किंतु यह मैं इस शर्त पर आपको भेंट कर सकता हूँ कि जो इच्छा मैं व्यक्त करूँ वह पूरी की जाए। बादशाह ने कहा, तुम क्या चाहते हो? हमारे देश में बड़े सुंदर प्रदेश और नगर हैं। तुम जहाँ का चाहो वहाँ का शासक तुम्हें बना दूँ। कारीगर ने कहा, मुझे शासनाधिकार नहीं चाहिए। मेरी इच्छा इससे कुछ अधिक की है। किंतु उस इच्छा को बताने से पहले मैं आपसे यह वचन लेना चाहता हूँ कि आप नाराज नहीं होंगे और मुझे कोई दंड नहीं देंगे। बादशाह ने वचन दिया तो हिंदोस्तानी बोला, मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूँ। यह सुन कर दरबारी और सामंत क्रोध में भर गए किंतु बादशाह को चुप देख कर वे भी चुप रहे। बादशाह का बड़ा पुत्र फीरोजशाह इस बात को सुन कर क्रोध से लाल हो गया। वह बादशाह से कहने लगा, आपने वचन न दिया होता तो मैं इस नीच कारीगर को सबक सिखाता। इसकी यह हिम्मत कि अपनी हैसियत को भूल कर मेरी बहन से विवाह करना चाहता है। हम लोग किसी बादशाह को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहेंगे। आप इसे फौरन भगा दीजिए। कह दीजिए कि अपना तमाशे का घोड़ा ले कर हिंदोस्तान वापस चला जाए नहीं तो जान से हाथ धोएगा। किंतु बादशाह ने धीमे स्वर में उससे कहा, लेकिन ऐसा घोड़ा तो संसार में कहीं नहीं मिलेगा।

युवराज ने देखा कि बादशाह घोड़े पर इतना रीझ गया है कि इसे लेने के लिए नीची हैसियत के हिंदोस्तानी कारीगर को दामाद बनाने के लिए भी तैयार है तो उसने मामले को टालने की कोशिश की। उसने कारीगर के पास जा कर कहा, बादशाह सलामत तुम्हारा घोड़ा ले सकते हैं। लेकिन इससे पहले यह जरूरी है कि मैं खुद उस पर बैठ कर उसकी परीक्षा करूँ। कारीगर ने कहा, बहुत अच्छी बात है। आप जरूर इस पर बैठ कर इसकी परीक्षा करें। फीरोजशाह एकदम घोड़े पर बैठ गया। वह अनुभवहीन नवयुवक भी था और हिंदोस्तानी कारीगर के प्रस्ताव से उसका दिमाग भी खौल रहा था। घोड़े पर बैठते ही उसने बगैर कुछ पूछे ताछे घोड़े की गर्दन का पेंच मरोड़ दिया और घोड़ा आसमान में गायब हो गया।

कारीगर ने हाथ जोड़ कर बादशाह से कहा, मालिक, युवराज ने बहुत जल्दी की, मैं उसे बता न पाया कि कौन-कौन सी कलें घोड़े में लगी हैं। वह शायद यह समझता है कि घोड़े के एक पेंच ही से सब काम होंगे। वास्तविकता यह है कि घोड़े को ठहराने, उतारने, मोड़ने आदि के लिए अलग-अलग कलें हैं। मैं उसे सब समझा देता किंतु वह एकदम से उड़ गया। अब अगर शहजादे को कोई दुख पहुँचे तो इसमें मेरा दोष न समझा जाए।

बादशाह यह सुन कर बहुत परेशान हुआ। उसे खयाल हुआ कि युवराज का अवश्य अनिष्ट होगा। यह सोच कर वह सिर पीटने लगा। उसने हिंदोस्तानी कारीगर से कहा, यह सब तेरी शरारत है। तूने जान-बूझ कर शहजादे को घोड़े का हाल न बताया ताकि उसके प्राण संकट में पड़ जाएँ। लेकिन मैं तुझे भी जीता नहीं छोड़ूँगा। उसने कहा, सरकार, मेरा कोई कसूर नहीं है। सब कुछ आपके सामने ही हुआ है। युवराज ने घोड़े पर बैठते ही उसे चालू करनेवाला पेंच घुमा दिया। उसने मुझे यह मौका ही कहाँ दिया कि मैं उसे घोड़े के दूसरे पेचों के बारे में बताता। फिर भी निराश न होना चाहिए। उसके पास ही उतारनेवाला पेंच भी लगा है। जब भी संयोग से शहजादे का हाथ उस पर पड़ेगा तो वह धरती पर आ जाएगा।

बादशाह को इससे तसल्ली नहीं हुई। उसने कहा, मान लिया कि घोड़े के दूसरे पेंच पर उसका हाथ पड़ गया और वह नीचे भी उतर आया लेकिन न जाने कब उसका हाथ पड़े और वह कहाँ उतरे। अगर वह किसी बहुत ऊँचे पहाड़ पर उतरा या किसी नदी में जा उतरा तो क्या होगा? कारीगर ने कहा, इसकी चिंता न कीजिए। नदी में उतरा तो चाहे नदी कितनी ही गहरी या चौड़ी क्यों न हो घोड़ा अपने सवार को सुरक्षापूर्वक किनारे पर पहुँचा देगा। फिर शहजादा घोड़े के चलानेवाले यंत्र को जानता है, वह बस्ती के अलावा कहीं न उतरेगा। बादशाह ने कहा, कुछ भी हो, मैं तुझे कैद में डाल देता हूँ और अगर तीन महीने में युवराज वापस न आया तो तुझे मरवा डालूँगा। यह कह कर उसने उत्सव बंद करा दिया और कारीगर को कैद में डाल दिया।

उधर फीरोजशाह आकाश में उड़ा तो इतना ऊँचा हो गया कि पहाड़ मिट्टी के ढेलों जैसे दिखाई देने लगे। अब उसने चाहा कि अपनी राजधानी में जा उतरूँ। उसने चालू करनेवाले पेंच को उलटी ओर मरोड़ा किंतु घोड़ा आगे ही बढ़ता गया। उसने तरह-तरह से पेंच को घुमाया किंतु घोड़ा नीचे नहीं उतरा। फीरोजशाह इस बात से बहुत घबराया किंतु घोड़ा और तेजी से आगे ही बढ़ता गया। फीरोजशाह बहुत देर तक घोड़े के सिर और गर्दन को टटोल कर देखता रहा। बहुत देर के बाद उसे घोड़े के दाएँ कान के नीचे छोटा पेंच मिला। उसे घुमाया तो घोड़ा नीचे उतरने लगा किंतु अब तक बहुत देर हो गई थी। अब तक डेढ़ पहर रात बीत गई थी और फीरोजशाह को पता न चला कि कहाँ उतर रहा है। आधी रात तक घोड़ा धरती पर आया। इस समय तक फीरोजशाह को बहुत भूख भी लग आई थी। घोड़ा एक बड़े महल की छत पर उतर कर खड़ा हो गया। फीरोजशाह उस छत पर, जिसकी मुँड़ेरें संगमरमर की बनी थीं, इधर-उधर घूम कर देखने लगा कि नीचे जाने का रास्ता कहाँ है। अंत में एक जीना दिखाई दिया जिसका एक किवाड़ खुला था। वह सोचने लगा कि नीचे जाऊँ या न जाऊँ, यहाँ के निवासी शत्रु समझ कर मुझे कहीं हानि न पहुँचाएँ। किंतु उसने सोचा कि मेरे निरस्त्र होने के कारण कोई शत्रुता समझेगा नहीं। यह सोच कर वह उतर गया।

वह एक दालान में पहुँचा और कान लगाए आहट लेने लगा किंतु सोनेवालों के खर्राटों के अलावा कुछ न सुनाई दिया। एक कमरे में दिए जल रहे थे। फीरोजशाह ने झाँक कर देखा तो कई दासियाँ और जनाने सो रहे थे। वह समझ गया कि यह किसी रानी या राजकुमारी का महल है। वह बंगाल देश की राजकुमारी का महल था। शहजादा आगे बढ़ा तो एक ओर एक कमरे के द्वार पर रेशमी परदा पड़ा था और अंदर कपूरी मोमबत्तियों का प्रकाश और सुगंध आ रही थी। वह दबे पाँव अंदर गया तो बड़ा लंबा-चौड़ा कमरा देखा जिसमें जमीन पर बहुत-सी दासियाँ सो रही थीं और एक ओर एक झालरों और महीन मच्छरदानी से सुसज्जित छपरखट पर एक शहजादी सो रही थी।

फीरोजशाह उसका मनमोहक रूप देख कर ठगा-सा रह गया और सोचने लगा कि अगर यह मुझे स्वीकार कर ले तो मैं इसके पीछे सारी दुनिया दोड़ दूँ। उस पर प्रेम का ऐसा उन्माद चढ़ा कि वह उचित-अनुचित भी भूल गया और वितान को उठा कर उसके मुँह पर रखी हुई उसकी आस्तीन उठा कर उसे देखने लगा। इसमें शहजादी की आँख खुल गई। उसने देखा कि एक अति सुंदर युवक राजसी वस्त्र पहने उसकी ओर एकटक देख रहा है। वह भय से स्तंभित रह गई। उसके मुँह से आवाज भी नहीं निकली।

फीरोजशाह ने विनयपूर्वक कहा, महोदया, आप बिल्कुल भय न करें। मैं फारस देश का युवराज हूँ। दिन में अपनी राजधानी में नौरोज का उत्सव मना रहा था। अब भाग्य ने मुझे यहाँ ला पटका है। इस समय आपकी शरण में हूँ, आपने मेरी रक्षा की तभी बचूँगा वरना मारा जाऊँगा।

शहजादी सुचित हो कर उसकी बात सुनने लगी। वह अपने पिता की सबसे छोटी बेटी थी और बंगाल के बादशाह ने यह महल खास उसी के लिए बनवाया था। उसने विस्तार से फीरोजशाह का हाल सुना। फिर बोली, युवराज, तुम किसी प्रकार की चिंता न करो। तुम यहाँ वैसे ही सम्मान से रहोगे जैसे अपने देश में रहते थे। तुम न केवल स्वयं सुरक्षित रहोगे बल्कि दूसरों को सुरक्षा प्रदान करने में भी क्षम्य होगे। तुम्हारा इस पूरे महल पर अधिकार होगा बल्कि तुम्हारा समूचे बंगाल देश पर भी अधिकार होगा।

फीरोजशाह ने कृतज्ञतास्वरूप शहजादी के पाँवों पर सिर रखना चाहा किंतु उसने रखने न दिया। उसने पूछा, तुमने अभी तक यह नहीं बताया कि तुम अपने देश से यहाँ तक कुछ ही घंटे में कैसे पहुँचे और सारे पहरों को लाँघ कर मेरे शयनकक्ष में कैसे आए। किंतु इस समय रहने दो। तुम्हारे चेहरे से भूख के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। मैं तुम्हारे भोजन का प्रबंध करके तुम्हारे सोने के लिए कमरे का प्रबंध करूँगी फिर सुबह इत्मीनान से तुम्हारी कहानी सुनूँगी।

इतने में दासियों की आँख खुल गई। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह युवक जिससे शहजादी घुल-घुल कर बातें कर रही है महल के कड़े पहरे से किस तरह बच कर यहाँ आ गया। शहजादी की आज्ञा से उन्होंने फीरोजशाह को स्वादिष्ट भोजन कराया और एक कमरे को सुसज्जित करके उसमें उसे सुला दिया। शहजादी अब तक फीरोजशाह के प्रेम में फँस चुकी थी। यह बात दासियों ने फौरन ताड़ ली। शहजादे के भोजन और शयन का प्रबंध करने के बाद दासियाँ शहजादी के पास आईं और उसके बारे में बातें करने लगी। एक मुँहलगी दासी ने कहा, राजकुमारी, यह शहजादा आपके योग्य है। आपका विवाह इसी से होना चाहिए। शहजादी की हार्दिक इच्छा यही थी किंतु उसने स्त्रीसुलभ लज्जा के नाते उसे डाँट दिया और कहा, क्या बेकार की बकबक लगा रखी हो। जाओ, सो जाओ और मुझे सोने दो।

सुबह उठ कर राजकुमारी ने बहुत देर तक अपना श्रृंगार किया। अपनी नागिन जैसी केश राशि में उसने मोती पिरोए, अपनी सुडौल गर्दन में हीरों का हार पहना, बाँहों में जड़ाऊ बाजूबंद पहने, तन पर विशेष रूप से राज परिवार के लिए तैयार किए जानेवाले रेशम का परिधान पहना और एक रत्नों से जड़ा महीन रेशम का कमरबंद अपनी कमर में बाँधा। इस रूप में सुंदरता में रति को भी लज्जित करने लगी।

उसका श्रृंगार काफी देर में पूरा हुआ। फिर उसने एक दासी को फीरोजशाह के कक्ष में भेज कर कहलवाया कि तुम मुझसे मिलने के लिए इधर न आना बल्कि मैं तुम्हारी ओर आ रही हूँ। फीरोजशाह भी जब जागा तो उसने दासियों से कहा कि तुम जा कर पता लगाओ कि शहजादी जागी हैं या अभी नहीं। अगर हों तो कहना कि मैं उनकी सेवा में उपस्थित होना चाहता हूँ। दासियों ने उसे शहजादी का संदेश दिया कि वह शहजादी की ओर न आए, शहजादी खुद उससे मिलने उसकी ओर आ रही हैं।

कुछ देर में अपने अति मनमोहक रूप में दासियों के बीच मंद-मंद गति से चलती हुई शहजादी उसके पास पहुँची। दोनों एक दूसरे को देख कर अति प्रसन्न हुए। शहजादे ने कहा, रात को मैंने आपकी निद्रा में विघ्न डाल कर आपको बड़ा कष्ट दिया। मेरा अपराध क्षमा करें। शहजादी ने कहा, अपराध की कोई बात नहीं है। मुझे आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई है। अब आप यह बताएँ कि आप अपने देश से चल कर इतनी जल्दी हमारे देश में कैसे पहुँचे और रात को मेरे महल में किस प्रकार प्रविष्ट हुए। यहाँ तो चिड़िया भी पर नहीं मार सकती। मुझे आपका हाल जानने की अतिशय अभिलाषा है।

शहजादा फीरोजशाह ने अपना वृत्तांत वर्णन किया, कल हमारे यहाँ नौरोज का त्योहार था। सभी शिल्पियों ने मेरे पिता को भेंटें दीं। उनमें हिंदोस्तान से आया एक कारीगर भी था।

उसने एक यंत्र से उड़नेवाला घोड़ा बादशाह को दिखाया। बादशाह को वह बहुत पसंद आया। और उसने हिंदोस्तानी कारीगर से घोड़े का दाम पूछा। कारीगर ने कहा कि मैं आपकी बेटी से विवाह करना चाहता हूँ। मैंने देखा कि मेरे पिता को घोड़ा इतना पसंद आ गया है कि उसके बदले में कारीगर को बेटी देने को राजी हो जाएँगे। सारे दरबारी कारीगर की बात पर क्रुद्ध थे किंतु बादशाह को चुप देख कर चुप थे। मैंने अपने पिता से कहा कि अभी तक तो कारीगर ने स्वयं ही इस घोड़े को चलाया है, जब तक यह न मालूम हो कि कोई दूसरा भी इसे चला सकता है तब तक यह घोड़ा किस काम का। बादशाह ने कहा, तुम्हीं इस पर बैठ कर इसकी परीक्षा लो। मैं जल्दी में उस पर बैठ गया। एक बार जैसे हिंदोस्तानी कारीगर को एक खूँटी उमेठ कर घोड़ा उड़ाते देखा था उसी प्रकार वह खूँटी उमेठ दी। घोड़ा एकदम से जमीन से उठ गया और मैं कारीगर से दूसरे कल-पुर्जों के बारे में पूछ ही नहीं सका।

घोड़ा इतना ऊँचा उड़ने लगा कि भूमि की कोई वस्तु मुझे ठीक से दिखाई नहीं देती थी। मैंने उतरने के लिए चलानेवाली खूँटी को उलटा, दाएँ-बाएँ और अन्य कई भाँति मोड़ा किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। घोड़ा तो तेजी से आगे की ओर उड़ता ही रहा। अंत में बहुत खोजने पर मुझे एक दूसरी छोटी-सी खूँटी मिली। उसे मरोड़ा तो घोड़ा नीचे उतरने लगा। अंत में आधी रात को वह आपके महल की छत पर उतर गया। वह अब भी वहीं खड़ा है।

घोड़े से उतर कर मैंने इधर-उधर देखा तो मुझे एक जीना नीचे उतरने के लिए दिखाई दिया। मैं धीरे-धीरे नीचे आया। दालान में मैंने कई पहरे की दासियों और जनानों को गहरी नींद में सोता पाया। फिर देखा कि आपके कमरे की ओर से झीने रेशमी परदे से छन-छन कर स्वच्छ प्रकाश आ रहा है। मैं दबे पाँव आपके कमरे में आ गया। मुझे भय था कि कोई पहरेवाली औरत जाग गई और मैं पकड़ा गया तो मुझे मार ही डाला जाएगा। लेकिन पीछे लौटता तो भी कहाँ जाता। आपको सोते देखा तो देखता ही रह गया। इतने में आपकी आँख खुल गई। आपने मुझ पर रोष करने के बजाय मुझ पर बड़ी कृपा की। मेरा रोम-रोम आपका आभारी है। मैं चाहता हूँ कि आप पर सब कुछ न्योछावर कर दूँ। किंतु मेरे पास इस समय है ही क्या? एक हृदय था, वो भी आपको पहली बार देखने पर हाथ से जाता रहा।

शहजादी फीरोजशाह की इस प्रेम पगी शिष्टवार्ता को सुन कर खिल उठी। उसने कहा, आप तो उड़नेवाले घोड़े पर अक्सर सैर करते होंगे। आज संयोग से मेरी ओर भी भूल पड़े। आप से अपनापन बढ़ाना बेकार है। आपको स्वभावतः ही अपनी जन्मभूमि फारस से लगाव होगा और वहीं चले जाएँगे। हमारे देश को और हमें काहे को याद करेंगे। फीरोजशाह ने कहा, अपनी जन्म भूमि से किसे लगाव नहीं होता लेकिन इस समय तो मैं आपकी कैद में हूँ। जब आप मुझे छुटकारा देंगी तभी जा सकूँगा। रही भूलने की बात, सो आपको एक बार देख कर कोई कभी नहीं भूल सकता। मैं तो अपने को भूल जाऊँ, आप को नहीं भूल सकता।

इतने में एक दासी ने आ कर कहा कि भोजन तैयार है। शहजादी के भोजन का समय अभी नहीं हुआ था। फिर भी उसने यह सोचा कि रात को शहजादे ने यूँ ही थोड़ा-बहुत खाया होगा इसलिए उसका हाथ पकड़ कर भोजन कक्ष में ले गई और स्वयं भी उसके साथ खाने लगी क्योंकि फीरोजशाह अकेले फिर जी भर कर भोजन न करता। दासियों ने भाँति-भाँति के स्वादिष्ट भोजन परोसे थे। खाने के समय कई नवयौवन रूपसी दासियाँ वाद्य यंत्र ले कर मधुर स्वर में गायन-वादन करने लगीं। शहजादी अपने हाथ से उठा-उठा कर स्वादिष्ट व्यंजन फीरोजशाह के आगे रख रही थी। दोनों ने अपने हाव-भाव से पूरी तरह प्रकट कर दिया कि एक दूसरे की प्रेमाग्नि में जल रहे हैं।

भोजन समाप्त होने पर शहजादी फीरोजशाह को एक बैठनेवाले कक्ष में ले गई। इस कक्ष की सुंदरता और सजावट का वर्णन नहीं हो सकता। उसकी दीवारों पर मोहक रंगों से कुशल चितेरों द्वारा बनाए हुए मनमोहक चित्र अंकित थे। वहाँ का सारा सामान सुनहरा और रुपहला था और सुंदर पच्चीकारी से सुसज्जित था। शहजादी ने वहाँ से भी उठ कर एक दालान में आसन ग्रहण किया और शहजादे को भी ले आई। यहाँ सामने एक अति सुंदर पुष्प वाटिका थी जिसमें रंगारंग फूल खिले थे और सुगंध की लपटें आ रही थीं। फीरोजशाह बोला, मैं अपने फारस के राजमहल ही को बड़ा सुंदर समझता था, आपके महल के आगे वह कुछ नहीं है।

शहजादी ने कहा, आप मेरे पिता बंगाल के बादशाह का महल देखेंगे तो यह महल तुच्छ लगेगा। मैं चाहती हूँ कि आप मेरे पिता से भेंट करें। वे आप से बड़ी प्रसन्नता से मिलेंगे। फीरोजशाह को बादशाह का महल देखने में अभिलाषा हुई। शहजादी ने सोचा कि बादशाह जब ऐसे रूपवान और सजीले राजकुमार को देखेगा तो मेरा विवाह उसके साथ कर देगा। अपनी उत्कंठा के बावजूद फीरोजशाह कई दिनों तक बंगाल के बादशाह के पास न गया क्योंकि उसका मन एक क्षण के लिए भी शहजादी का साथ छोड़ने का न होता था। शहजादी ने एक रोज फिर उस पर जोर दिया कि बादशाह से मुलाकात करो। फीरोजशाह ने कहा, आपका कहना बिल्कुल ठीक है, मुझे उनसे मिलना चाहिए। दिक्कत सिर्फ यह है कि मेरे पास यहाँ ऐसा साज-सामान नहीं जो कि बादशाह से भेंट करनेवालों के पास होना चाहिए। मैं अगर इसी हालत में उनसे मिलूँगा तो वे मेरे वंश के बारे में जान कर खुश होंगे किंतु मेरी साधारण वेशभूषा और रहन-सहन से उनके मन में मेरे प्रति प्रतिष्ठा कम हो जाएगी। और यह मैं नहीं चाहता।

शहजादी ने कहा, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। यहाँ आपके देश के बहुत से व्यापारी रहते हैं। आप एक अलग मकान लें और अपने देश के प्रचलित साज-सज्जा का सामान उन व्यापारियों से ले कर अपना मकान सजाएँ। फीरोजशाह ने कहा, यह सुझाव आपने बहुत अच्छा दिया। अब मैं आपसे अपने मन की एक और उलझन कहता हूँ। मुझे इतने दिन हो गए अपने पिता का कोई समाचार नहीं मिला है। मेरे अचानक गायब हो जाने से वे कितने दुखी होंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है। मुझे उनकी बड़ी चिंता लगी रहती है कि कहीं मर ही न गए हों। अगर आप कुछ खयाल न करें तो मैं एक बार अपने पिता से मिल आऊँ और उनसे आपके साथ अपने विवाह की अनुमति लूँ।

शहजादी को फीरोजशाह की बातों में तथ्य तो मालूम हुआ लेकिन उसने यह भी डर हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि फीरोजशाह अपने देश जा कर मुझे भूल जाए या किसी अन्य स्त्री के प्रेम में पड़ जाए या उसे अपने माता-पिता ही का प्रेम इतना अधिक हो जाए कि मेरे पास न आना चाहे। इसलिए उसने सोचा कि किसी प्रकार उसे कुछ दिन और अपने पास रखा जाए, हो सकता है कि इसका मुझसे इतना प्रेम बढ़ जाए कि यहाँ से जाने को इसका मन ही न करे। यह सोच कर उसने यह कहा, आपकी बात बिल्कुल ठीक है लेकिन मैं चाहती हूँ कि आप कुछ दिनों के लिए यहाँ और ठहर जाएँ। फीरोजशाह ने इस बात को स्वीकार कर लिया।

शहजादी ने फीरोजशाह के लिए अपने यहाँ निवास का आकर्षण और बढ़ा दिया। उसने तरह-तरह के मनोरंजन, खेलों और तमाशों का प्रबंध किया। शहजादा रोज ही महल के समीप के जंगल में जा कर शिकार खेलता था, भाँति-भाँति के संगीत आदि से उसका मन बहलाया जाता और अपनी प्रेमिका शहजादी के सौंदर्य का आनंद तो उठाता ही था। इसलिए उसका मन वहाँ ऐसा रमा कि दो महीनों तक घर की याद ही नहीं आई। लेकिन इसके बाद उसे अपने पिता का ध्यान आया और शहजादी से फारस जाने की बात कही। शहजादी यह सुन कर उदास हो गई। फीरोजशाह ने उसकी मनोदशा को समझा और कहा, सुनो शहजादी, यह तो अत्यंत अनुचित है कि मैं अपने माता-पिता से हमेशा के लिए उनकी जानकारी के बगैर अलहदा हो जाऊँ। लेकिन अगर तुम्हें मेरे प्रेम पर विश्वास नहीं है और सोचती हूँ कि मैं वापस नहीं आऊँगा तो तुम मेरे साथ चलो। तुम्हें तुम्हारे पिता मेरे साथ चलने की अनुमति न देंगे। इसलिए रात को जब सभी नौकर और दास-दासियाँ सो जाएँ तो हम दोनों चुपचाप फारस की ओर रवाना हो जाएँ। छत पर मेरा घोड़ा मौजूद ही है और अभी तक उसे किसी ने देखा नहीं है।

राजकुमारी को फीरोजशाह का वियोग असह्य था और वह भागने को तैयार हो गई। उस रात को दोनों छत पर गए। फीरोजशाह ने घोड़े का मुँह फारस की ओर किया और शहजादी को ले उड़ा। फारस पहुँच कर उसने सीधे अपने महल में जाना ठीक नहीं समझा। वह राजधानी से कुछ दूर देहात में बने राजमहल में उतरा। वहाँ शहजादी को छोड़ा और खुद शीराज के अपने महल की ओर माँ-बाप को अपने आगमन की सूचना देने के लिए चला। उसने शहजादी को आश्वासन दिया कि दो-एक दिन ही में मैं वापस आ जाऊँगा। उसने देहाती महल में प्रबंधकों को आज्ञा दी कि मेरे लिए एक घोड़ा लाओ। साथ ही उसने कहा कि मेरे पीछे शहजादी का पूरा खयाल रखना। उसे किसी प्रकार का कष्ट न होने पाए।

शहजादा घोड़े पर सवार हो कर गाँव से शीराज की ओर चला तो मार्ग में लोग उसे देख कर बड़े प्रसन्न हुए। वे उसकी कुशलतापूर्वक वापसी के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहते थे। फीरोजशाह राजमहल में पहुँचा तो वहाँ हर्षोल्लास की लहर आ गई। बादशाह बहुत देर तक उसे गले लगाए रोता रहा। फिर उसने पूछा कि इतने दिन कहाँ और किस तरह रहे। फीरोजशाह ने पूरी कहानी कही और शहजादी के सेवा-सत्कार का वर्णन करने के बाद कहा, शहजादी मेरे साथ आई है और मैं उसे देहाती राजप्रसाद में छोड़ आया हूँ। हम दोनों एक-दूसरे को बेहद चाहते हैं। मुझे आशा है कि आप मुझे उससे विवाह करने की अनुमति दे देंगे। यह कहने के बाद शहजादा फीरोजशाह अपने पिता के चरणों में गिर पड़ा।

बादशाह ने उसे उठा कर सीने से लगाया और कहा, बेटे, मैं बड़ी प्रसन्नता से तुम्हें बंगाल की राजकुमारी को ब्याहने की अनुमति देता हूँ। मैं खुद देहात के महल में जाऊँगा और स्वागत-सत्कार के साथ शहजादी को राजधानी में लाऊँगा। इसके बाद यहाँ के राजमहल में विवाह की सारी रीतियाँ संपन्न की जाएँगी। इसके बाद बादशाह ने आज्ञा दी कि शादयाने अर्थात हर्षसूचक बाजे बजाए जाएँ, मेरी सवारी देहात के महल में जाने के लिए तैयार रहे और शहजादी को शीरोज के राजमहल में लाने के लिए शाही जूलूस की तैयारियाँ की जाएँ।

इसके साथ ही उसने बंदीगृह में पड़े हुए हिंदोस्तानी कारीगर को बुलाया और कहा, तेरे कारण मुझे इतने दिनों तक पुत्र-वियोग का दुख सहना पड़ा है। मेरे बेटे को भी परेशानी उठानी पड़ी। जी तो चाहता है कि तुझे मरवा डालूँ लेकिन पुत्र की वापसी पर तुझे छोड़ने का वादा कर चुका हूँ इसलिए छोड़ रहा हूँ। तू मेरे देहात के महल से अपना मनहूस घोड़ा ले कर फौरन चला जा।

हिंदोस्तानी कारीगर अच्छा कारीगर तो था किंतु कुरूप और अधेड़ अवस्था का होने के साथ तबीयत का कमीना भी था। उसने बादशाह से नीचतापूर्ण बदला लिया। शहजादी के बारे में उसे समाचार मिल चुका था। वह यह भी जानता था कि जुलूस का प्रबंध हो जाने पर बादशाह खुद बंगाल की शहजादी को ले आएगा। वह बादशाह की सवारी के चलने के पहले ही गाँव पहुँच गया। देहाती राजमहल के प्रबंधक से उसने कहा, बादशाह ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुरंत ही राजकुमारी को अपने घोड़े पर बिठा कर शीराज के महल में पहुँचाऊँ। प्रबंधक ने उसकी बात का विश्वास कर लिया और राजकुमारी भी इस बात से खुश हुई कि जल्दी ही शहजादे फीरोजशाह के पास पहुँच जाऊँगी। वह तुरंत ही कपड़े ठीक ढंग से पहन कर राजमहल में जाने के लिए तैयार हो गई। हिंदोस्तानी कारीगर ने घोड़े पर राजकुमारी को बिठाया और उसके पीछे खुद बैठ गया और घोड़े को चलानेवाली खूँटी मोड़ दी।

घोड़े को आकाश में ले जा कर उसने पूर्व दिशा की ओर मोड़ दिया। बादशाह देहाती महल से बंगाल की शहजादी को लाने के लिए तैयार होने लगा। फीरोजशाह ने चाहा कि बादशाह के वहाँ पहुँचने के पहले वहाँ जा कर शहजादी को बादशाह के आगमन की सूचना दे दे। इसलिए वह घोड़े पर बैठ कर तेजी से देहात के राजमहल में पहुँचा। वहाँ प्रबंधक उसकी बात सुन कर हक्का-बक्का हो गया। उसने कहा, सरकार उस हिंदोस्तानी कारीगर ने आ कर कहा था कि बादशाह ने उसे शीराज के महल में पहुँचने की आज्ञा दी है। इस पर मैंने शहजादी को उसके साथ कर दिया और वह उसे यंत्रवाले घोड़े पर बिठा कर ले गया है। यह सुन कर शहजादा फीरोजशाह को अवर्णनीय दुख हुआ और वह बेहोश हो कर गिर पड़ा। प्रबंधक और भी घबराया। कुछ ही देर में बादशाह की सवारी भी आई। उसने प्रबंधक से सारा हाल सुना और बहुत खीझा क्योंकि सारी प्रजा में मशहूर हो गया था कि बादशाह खुद शहजादी को जुलूस के साथ शीराज ले जाएगा। वह फीरोजशाह की बेहोशी की परवाह किए बगैर शीराज वापस चल गया।

कुछ देर बार शहजादे को होश आया। प्रबंधक ने उसके पाँवों पर गिर कर कहा, सरकार, मुझ से अनजाने में अपराध हुआ है। आप इसके लिए जो भी दंड दें मैं खुशी से झेलूँगा। शहजादे ने कहा, तुमने धोखा खाया है इसलिए मैं तुम्हें दंड नहीं दूँगा। किंतु तुम मेरे लिए फकीरों जैसे वस्त्र ले आओ। वहीं पास में फकीरों का अखाड़ा था। प्रबंधक ने जा कर उनसे कहा, एक रईस को बादशाह मरवाने ही वाला है। रईस जान बचा कर भागना चाहता है। आप कृपया एक फकीरी बाना दे दें तो वह उसे पहन कर निकल जाए। अखाड़े के फकीरों को राजाज्ञा की चिंता न थी। उन्होंने दया करके उसे फकीरी बाना दे दिया। शहजादे ने उसे पहना, बहुमूल्य रत्नों और अशर्फियों से भरी हुई थैली उसमें छुपाई और शहजादी की तलाश में फकीर बन कर निकल पड़ा।

उधर हिंदोस्तानी कारीगर शहजादी को ले कर उड़ता रहा और कुछ घंटों के उड़ने के बाद कश्मीर के राज्य में पहुँच गया। वह खुद भी भूखा था और उसे मालूम था कि शहजादी को भी भूख लग आई होगी। किंतु उसने शहर में उतरने के बजाय एक घने जंगल में घोड़े को उतारा। वहाँ पर घने पेड़ों के कारण शीतलता थी। एक ओर एक तालाब था जिसमें निर्मल जल भरा था। कारीगर ने शहजादी को घोड़े के पास छोड़ा और पास के एक गाँव में जा कर कुछ खाने पीने की चीजें लेने के लिए चला गया। शहजादी स्वयं को उस कुरूप अधेड़ व्यक्ति के चंगुल में फँसा पा कर बहुत घबराई। उसकी इच्छा हुई कि भाग कर उससे जान बचाए किंतु न तो उसे रास्ता मालूम था और न पैदल चलने की आदत थी। वह भूख से निढाल भी हो रही थी। कुछ देर में कारीगर खाना ले कर आया। उसने खुद भी खाना खाया और शहजादी को भी खाने के लिए दिया।

खा-पी कर उसने शहजादी के साथ भोग की इच्छा प्रकट की। शहजादी ने घृणापूर्वक इनकार किया तो कारीगर ने उसे मारा-पीटा और बलपूर्वक अपनी इच्छा पूरी करनी चाही। शहजादी बड़े जोर से रोने लगी। कारीगर को इसकी परवा नहीं थी। इसीलिए वह जंगल में उतरा था। संयोग से कश्मीर का बादशाह शिकार खेलने के बाद उधर से हो कर गुजर रहा था। उसने और उसके दलवालों ने स्त्री कंठ का आर्तनाद सुना तो उस तरफ आए। उन लोगों ने कारीगर से पूछा, तुम कौन हो? तुम्हारे साथ की यह स्त्री कौन है और क्यों रोए चली जा रही है? कारीगर ने बादशाह को न पहचाना। उसने कड़क कर कहा, यह मेरी पत्नी है। मेरे साथ यह हँसे या रोए, तुम लोगों को इससे क्या मतलब? शहजादी ने पूछनेवाले के शाही रंग-ढंग देखे और रो कर कहा, सरकार, आपको भगवान ने मेरी सम्मान रक्षा के लिए भेजा है। मैं बंगाल की राजकुमारी हूँ, मेरा विवाह फारस के शहजादे से होनेवाला था। यह नीच कारीगर मुझे ले भागा है।

कश्मीर के बादशाह को भी शहजादी का रूप और तौर-तरीके देख कर उसकी बात का विश्वास हुआ। उसने एक-आध बात और पूछी फिर अपने साथियों को आज्ञा दी कि कारीगर का वध कर दो। दो आदमियों ने उसे पकड़ा और क्षण मात्र में उसकी गर्दन उड़ा दी। फिर उसने शहजादी से विस्तारपूर्वक उसका हाल पूछा और उसे एक घोड़े पर बिठा कर राजधानी में ले आया। यंत्रवाले घोड़े को भी बादशाह के सेवक घसीट कर महल में ले गए। राजधानी पहुँच कर बादशाह ने शहजादी को एक अलग महल में रखा और उसकी सेवा के लिए कई सेवक और दासियाँ नियुक्त कर दीं शहजादी कारीगर के पंजे से छूट कर बड़ी शांति महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि कश्मीर का बादशाह कितना भला आदमी है कि निःस्वार्थ उसकी मदद कर रहा था।

लेकिन कश्मीर नरेश उतना निःस्वार्थ न था जितना शहजादी ने समझा था। वह अब उसके कब्जे में थी और इस कारण वह उससे विवाह करना चाहता था और उसके लिए उसने शहजादी को अनुमति भी माँगना जरूरी न समझा। वह जानता था कि शहजादी फारस के राजकुमार पर मुग्ध है और खुशी से किसी और से विवाह न करेगी। उसने आदेश दिया कि विवाह के बाजे बजाए जाएँ और सारे राज्य में नाच-रंग और खेल तमाशे हों। एक दिन शहजादी दोपहर में सो रही थी कि बाजों की आवाज से उसकी आँख खुल गई। उसने दासियों से पूछा कि यह शोर क्यों हो रहा है तो प्रमुख दासी ने कहा, सरकार, यह बादशाह से आपके होनेवाले विवाह के उपलक्ष्य में बाजे बज रहे हैं। बादशाह का आदेश है कि इस खुशी में सारे राज्य में नाच-रंग और खेल-तमाशे किए जाएँ।

शहजादी को लगा जैसे वह एक भेड़िए के चंगुल से निकल कर दूसरे के चंगुल में आ गई है। उसने अपनी रक्षा का अजीब उपाय किया। जब बादशाह ने उसे अपने पास बुलाया तो वह उन्मत्त बन गई। उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और बादशाह और दूसरे लोगों को गालियाँ देने लगी और घूँसे मारने लगी। बादशाह उसकी दशा से चिंतित हुआ और अंत:पुर से बाहर आ कर सोचने लगा कि अब क्या किया जाए।

अपने बाहर के कक्ष में आ कर बादशाह ने अपने विश्वसनीय सभासदों से सलाह की। सब की राय हुई कि उसे कोई प्रेतबाधा लगी है वरना एकदम से पागल होने का कोई और कारण नहीं हो सकता। बादशाह ने दासियों को आदेश दिया कि शहजादी पर बराबर निगाह रखें ओर उसे नियंत्रण में रखें। उसने अपने राज्य भर के ओझाओं और तांत्रिकों को बुलवाया और शहजादी को अच्छा करने को कहा। उन लोगों ने तरह तरह की धूनियाँ दीं, अनगिनत बार अभिमंत्रित जल पिलाया और अन्य अनेकानेक उपाय किए। शहजादी को कुछ होता तो उसका इलाज भी होता। उसने शाम तक अपनी दशा और खराब कर ली और सब लोगों की चिंता बढ़ती गई। बादशाह तो दुख और चिंता के कारण रात भर सो ही न सका।

दूसरे दिन उसने आदेश दे कर यह घोषणा करवाई कि जो वैद्य-हकीम शहजादी को अच्छा कर देगा उसे काफी बड़ा इनाम दिया जाएगा। अब बहुत से वैद्य-हकीम आए। उन्होंने कहा कि नब्ज देख कर ही जाना जा सकता है कि क्या रोग है। अब शहजादी ने सोचा कि भेद खुलनेवाला है, अगर इनमें से किसी ने भी मेरी नाड़ी देखी तो समझ जाएगा कि यह पूर्ण रूप से स्वस्थ है। इसलिए वह और भी पागल बन गई और आक्रामक हो गई। जो भी वैद्य-हकीम उसके पास उसकी नाड़ी देखने जाता उसे वह दाँतों से काटती, थप्पड़-घूँसे मारती, थूकती, गालियाँ देती या उसके कपड़े फाड़ती।

संक्षेप में यह कि शहजादी ने किसी वैद्य-हकीम को अपने पास नहीं आने दिया। उन बेचारों ने दूर ही से अटकल लगा कर तरह-तरह के काढ़े तजवीज किए। शहजादी एक-आध को पी लेती, कुछ को फेंक देती और अपना पागलपन और बढ़ाने लगती। जब सामने कोई न होता तो साधारण स्थिति में आराम करती और किसी को भी देखते ही बकना, गालियाँ देना और नोच-खसोट करना शुरू कर देती थी। सारे वैद्य और हकीम असफल हो कर वापस चले गए और बादशाह को ऐसे वैद्य की तलाश रहने लगी जो उसे अच्छा कर सके।

इसी बीच शहजादा फीरोजशाह फकीर के वेश में घूमता-घामता वहाँ आ निकला। उसने वहाँ निवासियों से एक शहजादी की, जिससे बादशाह विवाह करना चाहता था, विक्षिप्तता का हाल सुना। वह समझ गया कि यह उसकी प्रेमिका बंगाल की शहजादी होगी, जिसकी तलाश में मैं मारा-मारा फिरता हूँ। वह राजधानी में एक साधारण व्यक्ति के वेश में एक सराय में उतरा। उसे और विस्तार से शहजादी की बीमारी का हाल मालूम हुआ। वह हकीमों का-सा वेश बना कर लंबी दाढ़ी लगा कर राजमहल के सामने गया और दरबानों से बोला, सुना है, यहाँ कोई शहजादी बीमार है। मैं उसका इलाज करना चाहता हूँ। बादशाह को खबर करो। दरबान हँसने लगे और घृणापूर्वक बोले, टुटपुंजिए हकीम को देखो। बड़े प्रसिद्ध हकीम तो झख मार गए, यह शहजादी को अच्छा करके इनाम पाएँगे। फीरोजशाह ने उन्हें डाँटा, तुम्हारा काम पहरा देना है या हकीमों को सनद देना। बादशाह को खबर करो। बादशाह नहीं चाहेंगे तो मैं लौट जाऊँगा। दरबानों ने खबर की तो बादशाह ने उसे फौरन बुला लिया। फीरोजशाह सामने आया तो बादशाह ने कहा, हकीम साहब, वह किसी को पास नहीं आने देती, हर आनेवाले पर आक्रमण कर देती है। उसे कमरे में बंद कर दिया गया है। आप पहले खिड़की से उसे देखें। फीरोजशाह वहाँ पहुँचा तो खिड़की से झाँक कर देखने लगा। उसने शहजादी को पहचान लिया जो बड़े दर्द भरे स्वर में उसके विरह में गीत गा रही थी। फीरोजशाह ने गौर से देखा तो यह भी समझ गया कि शहजादी को कोई रोग नहीं है वह खुद ही अपने को पागल दिखा रही है ताकि उसका बादशाह के साथ विवाह न हो सके।

बादशाह के पास आ कर उसने कहा, मेरी समझ में शहजादी का रोग आ रहा है। उसका कमरा खुलवाइए। मैं उसके पास जा कर उसे देखूँगा। लेकिन उस समय कमरे में कोई दूसरा आदमी नहीं होना चाहिए। बादशाह ने इस बात को मान लिया। फीरोजशाह अकेला शहजादी के पलंग की ओर बढ़ा। वह उसे पहचान न पाई और हकीम समझ कर चीखने और गालियाँ देने लगी। फीरोजशाह तेजी से पलंग के पास पहुँचा और धीमे से बोला, अच्छी तरह देखो। मैं हकीम-वकीम कुछ नहीं हूँ। फारस का शहजादा फीरोजशाह हूँ। तुम्हें तलाश करता हुआ आया हूँ। तुम मेरे साथ सहयोग करो तो तुम्हें निकाल ले चलूँ। शहजादी ने उसके स्वर से उसे पहचाना और ध्यान से देखा तो सूरत भी पहचान ली।

शहजादी ने चीखना बंद कर दिया और धीमे स्वर में बोली, मैंने अपना सतीत्व बचाने के लिए यह पागलपन का ढोंग किया था। मुझे नहीं मालूम था कि कब तक यह तमाशा करना पड़ेगा। सौभाग्य से तुम आ गए। लेकिन यहाँ से मुझे निकालोगे कैसे? बादशाह को मालूम होगा कि तुम मेरे प्रेमी और भावी पति हो तो तुम्हें जीता न छोड़ेगा। फीरोजशाह ने कहा, तुम सिर्फ यह करो कि पागलपन का प्रदर्शन बहुत कम कर दो, सिर्फ कभी-कभी कुछ अजीब हरकतें किया करो। बंगाल की शहजादी ने उसके कथनानुसार काम किया। उसने कपड़े फाड़ना, मार-पीट आदि करना बंद कर दिया। फीरोजशाह ने बाहर आ कर बादशाह से कहा, आप चल कर देख लें। शहजादी सहिबा लगभग पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गई हैं।

बादशाह फीरोजशाह के साथ शहजादी के कमरे आया। शहजादी ठीक-ठाक वस्त्र पहने बैठी थी। उसका व्यवहार भी लगभग सामान्य था। बादशाह ने वापस आ कर फीरोजशाह की बड़ी प्रशंसा की और कहा, हकीम साहब, आपने कमाल कर दिया है। बड़े बड़े हकीम महीनों लगे रहे और कुछ न कर सके। आपने दो-चार मिनट ही में शहजादी को ठीक कर दिया। मैं आप को मालामाल कर दूँगा। फीरोजशाह ने कहा, आपकी बड़ी कृपा है लेकिन अभी मैं एक पैसा नहीं लूँगा। शहजादी जब बिल्कुल ठीक हो जाएँगी उस समय आप जो भी देंगे मैं सिर झुका कर स्वीकार करूँगा।

फीरोजशाह ने आगे कहा, रोग पूरा ठीक करने के लिए पूरा हाल जानना जरूरी है। आप कृपा करके यह बताए कि शहजादी कब और किस प्रकार आपके राज्य में आई। वास्तव में फीरोजशाह जानना चाहता था कि यंत्र का घोड़ा प्राप्य है या नहीं। वह यह भी जानना चाहता था कि कारीगर का क्या हुआ। बादशाह ने ब्यौरेवार बताया कि इतने दिन पहले एक आदमी यंत्र के घोड़े पर इन्हें कश्मीर के एक जंगल में लाया था और इनके साथ दुराचार चाहता था। संयोग से मैं उसी समय शिकार खेल कर वापस आ रहा था। मैंने जा कर जब इनसे पूरा हाल सुना तो कारीगर को मरवा दिया और इन्हें और काठ के घोड़े को ले कर आ गया। मैं इनसे विवाह करना चाहता हूँ, यह ठीक हो जाएँ तो करूँ।

फीरोजशाह ने कहा, निश्चय ही वह यंत्र का नहीं जादू का घोड़ा होगा। उससे उतरते समय इनसे तंत्र-विधान संबंधी कोई भूल हो गई होगी। अब मेरी सलाह को ध्यानपूर्वक सुनें। उस पर कार्य किया जाय तो शहजादी साहिबा एक ही दिन में पूरी तरह ठीक हो जाएँगी। आप एक बड़े मैदान में उस घोड़े को रखवाएँ। उसके चारों ओर बड़ी-बड़ी अँगीठियाँ धूनी देने को रखवाएँ, न मालूम किस-किस प्रेतात्मा को बुलाना पड़े। फिर शहजादी को उनकी हैसियत के मुताबिक जेवर कपड़े पहना कर वहाँ लाया जाए और घोड़े पर बिठाया जाए। उसके बाद मैं मंत्र सिद्ध करूँगा।

बादशाह ने कहा, इसमें क्या मुश्किल है, यह सब अभी हो जाएगा। फीरोजशाह ने कहा, इस समय ठीक मुहूर्त नहीं है। कल सवेरे यह पूरा इंतजाम करवा दीजिए।

दूसरे दिन सुबह यंत्रवाला घोड़ा ला कर मैदान में रख दिया गया। उसके चारों ओर दस बारह अँगीठियाँ रख दी गईं। फीरोजशाह भी नहा-धो कर अच्छे कपड़े पहन कर आया और शहजादी को भी सजा-सँवार कर लाया गया। फीरोजशाह ने शहजादी को घोड़े पर बिठाया, फिर उसने झूठमूठ के मंत्र पढ़ते हुए घूम-घूम कर सारी अँगीठियों में कोई सामग्री डाली। इसके कारण ऐसा घना धुआँ उठा कि जनसमूह में किसी को घोड़ा दिखाई नहीं पड़ा। फीरोजशाह धुएँ के अंदर जा कर शहजादी के पीछे घोड़े पर जा बैठा और उसे चलानेवाली खूँटी घुमा दी। जब घोड़ा आकाश में ऊँचा हो गया तो फीरोजशाह ने पुकार कर कहा, लंपट बादशाह, देख। मैं फारस का युवराज फीरोजशाह हूँ। अपनी मँगेतर को लिए जा रहा हूँ। कुछ घंटों में दोनों को घोड़े ने शीराज पहुँचा दिया। दो-चार दिन में उन दोनों का धूमधाम से विवाह हो गया। फारस के बादशाह ने बंगाल के बादशाह को संदेश भिजवाया कि आपकी पुत्री को मैंने अपने युवराज से ब्याह दिया है, आप यह संबंध स्वीकार करें। उसने खुशी से संबंध स्वीकार किया और बहुमूल्य भेंटें फारस को भेजीं।

शहरजाद की इस कहानी को भी दुनियाजाद और शहरयार ने बहुत पसंद किया। अगली रात शहरजाद ने दूसरी कहानी कहना आरंभ किया।